वृंदावनवासी यत

वृंदावनवासी यत

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वृंदावनवासी यत

वृंदावनवासी यत वैष्णवेर गण।

प्रथमे वंदना करि सबार चरण।।१।।

नीलाचलवासी यत महाप्रभुर गण।

भूमिते पड़िया वन्दो संभार चरण।।२।।

नवद्वीपवासी यत महाप्रभुर भक्त।

सभार चरण वन्दों हझा अनुरक्त।।३।।

महाप्रभुर भक्त यत गौड़ देशे स्थिति।

सभार चरण वन्द करिया प्रणति।।४।।

ये-देशे, ये देशे वैसे गौरांगेर गण।

ऊर्ध्वबाहु करि' वन्दों सबार चरण।।५।।

हळाछेन हइबेन प्रभुर यत दास।

सभार चरण वन्द दन्ते करि घास।।६।।

ब्रह्माण्ड तारिते शक्ति धरे जने-जने।

ए वेद-पुराणे गुण गाय येबा शुने।।७।।

महाप्रभुर गण सब पतितपावन।

ताइ लोभे मुबि पापी लइनु शरण।।८।।

वन्दना करिते मुजि कत शक्ति धरि।

तमो-बुद्धिदोषे मुनि दम्भ मात्र करि।।९।।

तथापि मूकेर भाग्य मनेर उल्लास।

दोष क्षमि' मो-अधमे कर निज दास।।१०।।

सर्ववांच्छासिद्धि हय, यमबंध छूटे।

जगते दुर्लभ हा प्रेमधन लूटे।।११।।

मनेर वासना पूर्ण अचिराते हय।

देवकीनन्दन दास एइ लोभे कय।।१२।।

१. सर्वप्रथम मैं वृन्दावन में रहने वाले सभी वैष्णवों के चरणकमलों पर प्रणाम करता हूँ।

२. उसके पश्चात् मैं नीलाचल में रहने वाले श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्तों के चरणकमलों पर दण्डवत् प्रणाम करता हूँ।

३. मैं नवद्वीप में रहने वाले महाप्रभु के सभी प्रिय भक्तों के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ।

४. मैं गौड़देश में रहने वाले महाप्रभु के सभी भक्तों को प्रणाम करता हूँ।

५. श्रीगौरांग महाप्रभु के प्रिय भक्त विश्व के किसी भी कोने में क्यों न रह रहे हों मैं उनके चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ। मैं भविष्य में आने वाले महाप्रभु के सभी भक्तों को भी प्रणाम करता हूँ।

६. अपने दाँतों में तृण रखकर मैं उनके चरणकमलों की वंदना करता हूँ।

७, ८. सभी वेदों और पुराणों में यह कहा गया है कि महाप्रभु के प्रिय भक्त पतित-पावन हैं, और चूँकि मैं इतना पतित और निकृष्ट हूँ, मेरे हृदय में श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रिय भक्तों का आश्रय लेने की लालसा जागृत होने लगी है। अन्यथा मेरे उद्धार का कोई मार्ग नहीं है।

९. यदि मैं ऐसा सोचता हूँ, “हाँ, मैं वैष्णवों का गुणगान कर सकता हूँ," तो यह मेरी धृष्टता होगी। मुझमें यह घमण्ड है।

१०. मैं गूंगा हूँ और मुझमें वैष्णवों का गुणगान करने की शक्ति नहीं है। फिर भी अपने मन में मैं आनन्दित हूँ। हे वैष्णवों! कृपया मेरे अपराधों को क्षमा करें। कृपया मुझे अपने एक दास के रूप में स्वीकार करें!

११, १२. केवल वैष्णवों की कृपा से व्यक्ति यमराज के पाश से मुक्त होकर प्रेमभक्ति प्राप्त कर सकता है, जो इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ है। अन्य कोई मार्ग नहीं है। जब आप गुरु अथवा ऐसे वैष्णवों की कृपा प्राप्त करेंगे तो आपकी सभी मनोवांछायें पूर्ण हो जायेंगी। इसलिए देवकीनन्दन दास वैष्णवों की महिमा में यह भजन लिखता है।

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