ठाकुर वैष्णवगण

ठाकुर वैष्णवगण

@Vaishnavasongs

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ठाकुर वैष्णवगण

ठाकुर वैष्णवगण ! करि एइ निवेदन,

मो बड अधम दुराचार ।

दारुण-संसार निधि, ताहे डुबाइल विधि,

केशे धरि मोरे कर पार ।।१।।

विधि बड बलवान, ना शुने धरम-ज्ञान,

सदाइ करम पाशे बांधे।

ना देखि तारण लेश, यत देखि सब क्लेश,

अनाथ, कातरे तेञि काँदे ।।२।।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अभिमान सह,

आपन-आपन स्थाने टाने।

ऐछन आमार मन, फिरे येन अंधजन,

सुपथ विपथ नाहि जाने ।।३।।

ना लइनु सत मत, असते मजिल चित,

तुया पाये ना करिनु आश ।

नरोत्तमदासे कय, देखि शुनि लागे भय,

तराइया लह निज पाश ।। ४ ।।

।।१।। हे वैष्णव ठाकूर! मेरा निवेदन सुनिए, मैं अत्यंत अधम और दुराचारी हूँ। मेरे दुर्भाग्य ने मुझे इस दुःखमय संसार सागर में डुबो दिया है, जो अत्यंत भयानक है। आप मेरे केशों को पकड़कर मुझे पार किजिए।

।।२।। विधि अत्यंत बलवान है वह किसी धर्म-ज्ञान को नही सुनती, वह सदा उन्हें कर्मपाश में बान्धे रखती है। मैं इससे पार होने का उपाय ही नहीं देख पाता हूँ। जहाँ भी देखता हूँ वहाँ क्लेश दिखता है। इसलिए मैं अनाथ की भाँति रो रहा हूँ।

।।३।। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अभिमान, मुझे अपनी-अपनी ओर खींच रहे हैं। मेरा मन अंधे के समान, सुपथ-कुपथ को जाने बिना ही इधर-उधर भटक रहा है।

।।४।। मैंने भगवद्भक्तों के मार्ग का अनुसरण नहीं किया। मेरा चित्त सदा असत्संग में ही डूबा रहा। श्रील नरोत्तम दास ठाकूर कहते हैं, 'हे वैष्णव ठाकूर! मैं आपके चरणों का आश्रय नहीं ले सका। संसार की दारुण अवस्था देख-सुनकर मुझे भय लग रहा है। अतः आप कृपा करके मुझे अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान कीजिए।

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