ठाकुर वैष्णव पद

ठाकुर वैष्णव पद

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ठाकुर वैष्णव पद

ठाकुर वैष्णव पद, अवनीर सम्पद,

शुन भाई, होइया एक मन।

आश्रय लइया भजे, तारे कृष्ण नाहि त्यजे,

आर सब मरे अकारण ।।१।।

वैष्णव चरण जल, प्रेमभक्ति दिते बल,

आर केह नहे बलवन्त।

वैष्णव-चरण-रेणु, मस्तके भूषण बिनु,

आर नाहि भूषणेर अंत ।।२।।

तीर्थजल पवित्र-गुणे, लिखियाछे पुराणे,

से सब भक्तिर प्रवन्चन।।

वैष्णवेर पादोदक, सम नहे एइ सब,

जाते हय वांच्छित पूरण ।।३।।

वैष्णव-संगेते मन, आनन्दित अनुक्षण,

सदा हय कृष्ण परसंग।

दीन नरोत्तम काँदे, हिया धैर्य नाहि बांधे,

मोर दशा केन हैल भंग ।।४।।

।।१।। अरे भाई! एकाग्रचित्त होकर सुनो, वैष्णवों के चरणकमल ही इस जगत् कि सुसम्पदा हैं। यदि उनका आश्रय लेकर कोई कृष्णभजन करता है, तो कृष्ण उसका त्याग नहीं करते। उनके आश्रयके बिना यदि कोई भजन-साधन करता है तो वह व्यर्थ ही मारा जाता है। उसका भजनसाधन निष्फल हो जाता है।

।।२।। वैष्णवों का चरणजल प्रेमभक्ति प्रदान करने में समर्थ है और कोई दूसरा उपाय शक्तिशाली नहीं है। वैष्णवों की चरणरज ही मस्तक का भूषण है और सब अनन्त भूषण व्यर्थ हैं।

।।३।। पुराणों में तीर्थों के जल को पवित्र बताया गया है, परन्तु भक्ति के लिए यह सब प्रवञ्चनामात्र है, क्योंकि वैष्णवों के चरणजल से तीर्थजल की कोई तुलना है ही नहीं। अतः इसका पान करनेमात्र से सारे मनोभीष्टों की पूर्ति होती है।

।।४।। वैष्णवों के संग सदैव कृष्णकथा की चर्चा होती है, जिससे मन सर्वदा आनन्दित रहता है। नरोत्तम दास ठाकुर रोते हुए कहते हैं- “ये स्थितियाँ क्यों नहीं प्राप्त हुई? मेरे धैर्य की सीमा टूट रही है।

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