मानस, देह, गेह, जो किछु मोर
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मानस, देह, गेह
मानस, देह, गेह, जो किछु मोर।।
अर्पिलें तुया पदे नन्दकिशोर।।१।।
संपदे-विपदे, जीवने-मरणे।
दाय मम गेला, तुवा ओ-पद वरणे।।२।।
मारबि राखबि जो इच्छा तोहार।
नित्यदास-प्रति तुया अधिकार।।३।।
जन्माओबि मोए इच्छा यदि तोर।
भक्तगृहे जनि जन्म हउ मोर।।४।।
कीट जन्म हउ यथा तुया दास।
बहिर्मुख ब्रह्मा जन्मे नाहि आश।।५।।
भुक्ति-मुक्तिस्पृहा-विहीन ये-भक्त।
लभइते टाको संग अनुरक्त ।।६।।
जनक-जननी-दयित-तनय।
प्रभु-गुरु-पति-तुहुँ सर्वमय।।७।।
भकतिविनोद कहे सुन कान!।
राधानाथ! तुहुँ आमार पराण।।८।।
१. हे नन्दकिशोर श्रीकृष्ण! मेरा मन, शरीर और परिवार, तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है मैं उसे आपके चरणकमलों पर समर्पित करता हूँ।
२. सम्पदाओं में अथवा विपदाओं में, जीवन में अथवा मृत्यु में, आपके चरणकमलों को अपना एकमात्र आश्रय चुनने पर सभी कठिनाइयाँ समाप्त हो गईं।
३. चाहे मुझे मारिए अथवा मेरी रक्षा कीजिए, इस नित्य दास पर आपका पूरा अधिकार है।
४. यदि आपकी इच्छा है कि मैं पुनः इस संसार में जन्म लूं तो मेरा जन्म किसी भक्त के घर पर ही हो।
५. चाहे मेरा जन्म एक कीड़े के रूप में हो, किन्तु मैं आपका भक्त रहूँ। आपसे विमुख होकर मैं ब्रह्मा के रूप में भी जन्म नहीं लेना चाहता ।
६. मैं उस भक्त के संग के लिए लालायित हूँ जो सभी प्रकार के भोगों, मुक्ति अथवा अन्य इच्छाओं से विमुक्त है।
७. पिता, माता, प्रेमी, पुत्र, स्वामी, गुरु, पति - मेरे लिए आप ही सबकुछ हैं।
८. ठाकुर भक्तिविनोद कहते हैं, “हे कान्हा! कृपया मेरी याचना सुनो! हे राधानाथ, आप ही मेरे प्राणधन हैं।''