कबे हबे बोलो

कबे हबे बोलो

@Vaishnavasongs

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कबे हबे बोलो

कबे हबे बोलो से-दिन आमार ।

(आमार) अपराध घुचि, शुद्धनामे रुचि,

कृपाबले हबे हृदये संचार ।।१।।

तृणाधिक हीन, कबे निज मानि,

सहिष्णुता-गुण हृदयेते आनि ।

सकले मानद, आपनि अमानी,

हये आस्वादिब नामरस सार ।।२।।

धन जन आर, कविता सुन्दरी,

बलिब ना चाहि देह सुखकरी ।

जन्मे-जन्मे दाओ, ओहे गौरहरि,

अहैतुकी भक्ति चरणे तोमार ।।३।।

(कबे) करिते श्रीकृष्ण-नाम उच्चारण,

पुलकित देह गदगद वचन ।

वैवर्ण्य-वेपथु, ह'बे संघटन

निरन्तर नेत्रे ब'बे अश्रुधार ।।४।।

कबे नवद्वीपे, सुरधुनि-तटे

गौर-नित्यानन्द बलि निष्कपटे ।

नाचिया गाइया, बेड़ाइब छुटे,

बातुलेर प्राय छाड़िया विचार ।।५।।

कबे नित्यानन्द, मोरे करि दोया,

छाड़ाइबे मोर विषयेर माया ।।

दिया मोरे निज चरणेर छाया

नामेर हाटेते दिबे अधिकार ।।६।।

किनिबो, लुटिबो, हरिनाम-रस,

नाम रसे मति हइबो विवश ।

रसेर रसिक - चरण परश,

करिया मजिबो रसे अनिवार ।।७।।

कबे जीवे दया, हइबे उदय,

निजसुख भुलि सुदीन हृदय ।

भकतिविनोद, करिया विनय,

श्री आज्ञा-टहल करिबे प्रचार ।।८।।

१. अहो! कब मेरा ऐसा शुभ दिन आयेगा जब श्रीगौरसुन्दर की कृपा से मेरे समस्त प्रकार के अपराध नष्ट हो जायेंगे, जिसके फलस्वरूप शुद्ध नाम में रुचि हो जायेगी तथा हृदय में स्फूर्ति होगी ।

२. कब मैं अपने हृदय में सहिष्णुता को धारण कर स्वयं को तृण से भी अधिक दीन-हीन मानूंगा तथा अपने लिए सम्मान की इच्छा न रखते हुए दूसरों को पूरा सम्मान दूंगा और इस प्रकार निरन्तर नामरस का आस्वादन करूंगा।

३. हे गौरसुन्दर! मैं धन, जन, विद्या, सुन्दरी तथा अन्य प्रकार की देहसुखकारी वस्तुओं को नहीं चाहता,मैं तो केवल यही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मान्तर में आपके श्रीचरणों में ही मेरा अहैतुकी भक्ति रहे।

४. अहो ! कब श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते समय मेरा शरीर पुलकित तथा वाणी गद्गद् हो जायेगी । सारा शरीर पसीने से लथपथ हो जायेगा तथा नेत्रों से निरन्तर अश्रुधारा प्रवाहित होती रहेगी?

५. कब मैं नवद्वीप में गंगानदी के तटों पर निष्कपट भाव से “हा गौर! हा निताई!'' बोलते हुए तथा नाचते-गाते हुए एक पागल व्यक्ति की भाँति लोक-लाज त्याग कर इधरउधर भागता रहूँगा?

६. अहो! कब नित्यानन्द प्रभु कृपा करके विषयों के प्रति मेरी अनासक्ति को छुड़ाकर अपने श्रीचरणों की छाया अर्थात् आश्रय प्रदान कर नाम के बाजार में मुझे अधिकार प्रदान करेंगे।

७. जिससे मैं उस नाम के बाजार में हरिनामरूपी रस को खरीदकर अथवा लूटकर भी पान कर लूंगा तथा नामरस में मेरी मति विवश हो जायेगी और रसिक वैष्णवों के श्रीचरणों का स्पर्श करके नामरस में निमग्न हो जाऊँगा।

८. श्रील भक्तिविनोद ठाकुर विनयपूर्वक कह रहे हैं - कब मेरे हृदय में जीवों के प्रति दया उदित होगी और मैं अपना सुख भूलकर भी सुदीन हृदय से श्रीगौरसुन्दर की आज्ञा पालन कर प्रचार करूंगा।

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