ईश्वरः परमः कृष्ण

ईश्वरः परमः कृष्ण

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श्री ब्रह्म संहिता

ईश्वरः परमः कृष्ण सच्चिदानन्दविग्रहः ।

अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ।।१।।

चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष

लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।

लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।२।।

वेणु क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं

बर्हावतमसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्।

कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।३।।

आलोलचन्द्रकलसद्-वनमाल्यवंशी

रत्नांगदं प्रणयकेलिकलाविलासम् ।

श्यामं त्रिभंगललित नियतप्रकाश

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।४।।

अङ्गानियस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति

पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति।

आनन्दचिन्मयसदुज्जवलविग्रहस्य

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।५।।

अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपं

आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।

वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।६।।

पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्यो

वायोरथापि मनसो मुनिपुंगवानाम् ।

सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वे ।

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।७।।

एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं

यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः।।

अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं ।

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।८।।

यद्भावभावितधियो मनुजास्तथैव

सम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः।

सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः स्तुवन्ति ।

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।९।।

आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्

ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।

गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१०।।

प्रेमाजनच्छुरितभक्तिविलोचनेन

सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति ।

यं श्मामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।११।।

रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्।

नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु।

कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् यो

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। १२।।

यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि

कोटिष्वशेषवसुधादि विभूतिभिन्नम्

तद् ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१३।।

माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूते

त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना ।

सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वं विशुद्धसत्त्वं ।

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१४।।

आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनःसु

यः प्राणिनां प्रतिफलन् स्मरतामुपेत्य ।

लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्त्रं

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१५।।

गोलोकनाम्नि निजधानि तले च तस्य

देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु ।

ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१६।।

सृष्टीस्थितीप्रलयसाधनशक्तीरेका

छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा।

इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१७।।

क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्

सजायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः।

यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१८।।

दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य

दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा ।

यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभाति

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।१९।।

यः कारणार्णवजले भजति स्म योग

निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः।

आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्ति

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।२०।।

यस्यैकनिवसितकालमथावलम्ब्य

जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः।

विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।२१।।

भास्वान् यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजः

स्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तदत्र ।

ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।२२।।

यत्पाढपल्लवयुग विनिधाय कुम्भ-

द्वंद्ववे प्रणामसमये स गणाधिराजः ।

विघ्नान विहन्तुमलामस्य जगत्त्रयस्य

गोविन्द्वमादिपुरुष तमह भजामि ।।२३।।

अग्निर्मही गगनमम्बु मरुद्दिशश्च

कालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि ।

यस्माद् भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २४।।

यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां

राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः।

यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २५।।

धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसि

ब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः ।

यद्दतमात्रविभवप्रकटप्रभावा

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।२६।।

यस्त्विन्द्रगोपाथवेन्द्रमहो स्वकर्म

बन्धानुरूपफलभाजनमातनोति।

कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजां

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।२७।।

यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति

वात्सल्यमोहगुरुगौरवसेव्यभावैः।

सञ्चिन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।२८।।

श्रियः कान्ताः कान्तः परमपुरुषः कल्पतरवो

ढुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।

कथा गानं नाट्यं गमनमपि वंशी प्रियसखी

चिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च ॥

स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीभ्यश्च सुमहान्

निमेषार्धाख्यो वा व्रजति न हि यत्रापि समयः।

भजे श्वेतदीपं तमहमिह गोलोकमिति यं

विदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये ।।२९।।

अनुवाद

।।१।। गोविन्द के नाम से विख्यात कृष्ण ही परमेश्वर हैं। उनका सच्चिदानंद शरीर है। वह सब के आदि है। उनका कोई आदि नही एवं वह समस्त कारणों के मूल कारण हैं।

।।२।। मैं उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का भजन करता हूँ , जो लाखों कल्पवृक्षों से घेरे हुए चिंतामणिसमूह से निर्मित भवनों में सुरभी गायों का पालन-पोषण करते हैं एवं जो असंख्य लक्ष्मियों द्वारा सदैव प्रगाढ आदर और प्रेम सहित सेवित होते रहते हैं।

।।३।। जो वेणु बजाने में दक्ष हैं, कमल की पंखुडियों जैसे जिनके प्रफुल्ल नेत्र हैं, जिनका मस्तक मोरपंख से आभूषित है, जिनके अंग नीले बादलों जैसे सुंदर हैं, और जिनकी विशेष शोभा करोडों कामदेवों को भी लुभाती है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।४।। जिनके गले में चंद्रक से शोभित वनमाला झूम रही है, जिनके दोनों हाथ वंशी तथा रत्न-जडित बाजूबंदों से सुशोभित हैं, जो सदैव प्रेम-लीलाओं में मग्न रहते हैं, जिनका ललित त्रिभंग श्यामसुंदर रूप नित्य प्रकाशमान है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।५।। जिनका अप्राकृत श्री विग्रह आनंद, चिन्मयता तथा सत् से पूरित होने के कारण परमोज्वल है, जिनके चिन्मय शरीर का प्रत्येक अंग अन्यान्य सभी इन्द्रियों की पूर्णविकसित वृत्तियों से युक्त है, चिरकाल से जो आध्यात्मिक एवं भौतिक-दोनों जगतों को देखते, पालन करते तथा प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।६।। जो वेदों के लिए दुर्लभ हैं, किन्तु आत्मा को विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ हैं जो अद्वैत हैं, अच्युत हैं, अनादि हैं, जिनका रूप अनंत हैं, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।७।। चिन्मयता को प्राप्त करने के इच्छुक योगियों के प्राणायामादि वायु निरोधात्मक योग-पथ से अथवा निर्भेद ब्रह्मानुसंधान करने वाले श्रेष्ठ ज्ञानियों के भौतिक त्याग द्वारा ज्ञान-पथ से, शतकोटी वर्षों तक साधन करने पर भी जिनके चरणारविन्द के अग्रभाग की ही प्राप्ती होती है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।८।। जो शक्ति एवं शक्तिमान में अभिन्नता होने के कारण निर्भद एक तत्त्व हैं, जिनके द्वारा करोडों ब्रह्माण्डों की सृष्टी होने पर भी जिनकी शक्ती उनसे पृथक नहीं है, जिनमें सारे ब्रह्माण्ड स्थित हैं एवं जो साथ ही साथ ब्रह्माण्डों के भीतर रहने वाले परमाणु-समूह के भी भितर पूर्ण रूप से अवस्थान करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।९।। भाव-भक्ती से भावित हृदय वाले मनुष्य अपने उपयुक्त रूप, महिमा, आसन, वाहन तथा आभूषणों को प्राप्त करके वेद कथित मंत्र-सुक्तों द्वारा जिनकी स्तुती करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१०।। जो अपने धाम, गोलोक, में अपनी स्वरूप शक्ति, चौंसठ कलायुक्त ह्लादिनीरूपा श्री राधा तथा उनकी सखियों के साथ, जो कि उनके नित्य आनंदमय चिन्मय रस से स्फूर्त एवं पूरित रहती हैं, निवास करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।११।। जो स्वयं श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रजित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अन्तर्हृदय में दर्शन करते रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।। १२।। जिन्होने श्रीराम, नृसिंह, वामन इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में अवतार लिए, परंतु जो भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१३।। जिनकी प्रभा उपनिषदों में वर्णित निर्विशेष ब्रह्म का स्रोत है तथा करोडो ब्रह्माण्डों में अनंत विभूतियों के रूप में भेद को प्राप्त होने के नाते निरवच्छिन्न, पूर्ण, अनंत सत्य के रूप में प्रकट है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१४।। सत्व, रज तथा तमोरूप-जैगुणमयी एवं जड-ब्रह्माण्डसम्बंधि वेदज्ञानविस्तारिणी माया जिनकी अपरा शक्ती है, उन्ही सत्वाश्रय रूप परसत्वनिबन्धन विशुद्धसत्वरूप आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१५।। जो स्मरणकारी प्राणीयों के मनो में नित्य आनंदचिन्मयरसस्वरूप से प्रतिफलित होकर निज लीला-विलास द्वारा निरन्तर समस्त भौतिक जगत को वशीभूत करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१६।। जिन्होने गोलोक नामक अपने सर्वोपरी धाम में रहते हुए उसके निचे स्थित क्रमशः वैकुण्ठलोक, महेशलोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों के विभिन्न स्वामियों को यथायोग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१७।। भौतिक जगत की सृष्टी, स्थिती एवं प्रलय की साधनकारिणी, चित्शक्ति की छाया-स्वरूपा माया शक्ति, जो कि सभी के द्वारा दुर्गा नाम से पूजित होती हैं, जिनकी इच्छा के अनुसार चेष्टाएँ करती हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१८।। दूध जिस प्रकार खटाई या जामनादि के संयोग से दही में बदल जाता है, किन्तु फिर भी अपने उपादान-कारण दूध से वह न तो समान होता है और न ही पृथक होता है; उसी प्रकार संहार कार्य के निमित्त जो शम्भु रूप में परिणत हो गए हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।१९।। जैसे मूल दीपक की लौ दूसरे दीपक में पहुँच कर यद्यपि दोनों दीपकों में पृथक रूप से जलती है परन्तु गुण में एक समान होती है, उसी प्रकार जो स्वयं को विभिन्न प्रकाश में समान रूप से प्रदर्शित करते है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।२०।। जो अपनी आधारशक्ती-स्वरूप अनंतशेष नामक श्रेष्ठमूर्ति का अवलम्बन कर अपने रोमकूपों में अनन्त ब्रह्माण्डो को समाये हुए, योगनिद्रा का आनंद लेते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।२१।। महाविष्णु के रोम छिद्रों से प्रकट ब्रह्मा एवं भौतिक ब्रह्माण्डों के अन्य स्वामीगण उनके (महाविष्णु के) एक श्वास-जितने काल तक ही जीवित रहते हैं; परन्तु वे महाविष्णु भी जिनकी एक विशिष्ट कला मात्र हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ ।

।।२२।। सूर्य जिस प्रकार सूर्यकान्तादि मणियों में अपने कुछ तेज का संचार करता है, उसी प्रकार विभिन्नांश-स्वरूप ब्रह्मा जिनसे प्राप्त शक्ति द्वारा ब्रह्माण्ड का विधान करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।२३।। तीनों लोकों के समस्त विघ्नों का विनाश करने हेतु शक्ति प्रदान करने के उद्देश से श्री गणेश जिनके चरणकमलों को अपने मस्तक के दोनों कुम्भ पर धारण करते है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।। २४।। अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, वायु, दिशाएँ, काल, आत्मा एवं मन से युक्त तीनों लोक जिनसे उत्पन्न होते हैं, जिनमें स्थित रहते हैं और जिनमें प्रलय के समय प्रवेश कर जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।। २५।। इस जगत के नेत्ररूप सूर्य, समस्त ग्रहों के अधिपति, सारे देवताओं के प्रतिक एवं अतिशय तेजस्वी होते हुए भी जिनकी आज्ञा से कालचक्र पर चढकर भ्रमण करते रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।२६।। धर्म, पापसमूह, वेद, तपस्याएँ और ब्रह्मा से लेकर किटपतंग तक समस्त जीव जिनके द्वारा प्रदत्त शक्तियों से पालित होते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।२७।। जो एक इंद्रगोप जैसे क्षुद्र कीडे से लेकर देवराज इंद्र पर्यन्त समस्त जीवों को उनके कर्मफलों के अनुरूप फल भोग कराते हैं, किन्तु जो अपने भक्तों के समस्त कर्मों को समूल नष्ट कर देते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।२८।। क्रोध, काम, सहज स्नेह, भय, वात्सल्य, मोह, क्षृद्धा तथा सेवा भावसे जिनका चिंतन करके साधक उन्हीं भावों के यथायोग्य रूपों को प्राप्त हो गए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।

।।२९।। मैं उस श्वेतद्वीप नामक अप्राकृत धाम को भजता हूँ जहाँ प्रेमिका लक्ष्मीयाँ अपने शुद्ध भाव से परम पुरुष कृष्ण की अपने एकमात्र प्रेमी के रूप में सेवा करती हैं, जहाँ प्रत्येक वृक्ष कल्पतरु है, जहाँ की भूमि चिन्तामणिमय है, सारा जल अमृत है, सारे शब्द गीत है, सारा गमन नृत्य है, वंशी ही जहाँ प्रिय सखी है, जहाँ की ज्योती चिदानंदमय एवं परम आस्वाद्य है; जहाँ अनगिनत सुरभी गाएँ चिन्मय महाक्षीरसागरों को प्रवाहित करती हैं। जहाँ चिन्मय काल का नित्य अस्तित्व है, जिसमें भूत-भविष्य नहीं होने के कारण अर्धक्षण भी नहीं बीतता और जो इस जगत में विरले भगवन्निष्ठ संतों द्वारा ही ‘गोलोक' के रूप में जाना जाता है।

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