बोड़ो कृपा कोइले कृष्ण

बोड़ो कृपा कोइले कृष्ण

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मार्किने भागवत-धर्म

(अमरीका में भागवत-धर्म का प्रचार कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद कृत)

बोड़ो कृपा कोइले कृष्ण अधमेर प्रति ।

कि लागियानिले हेथा करो इबे गति ।।१।।

आछे किछु कार्य तव एइ अनुमाने।

नाहे केनो आनिबेन एइ उग्र स्थाने ।।२।।

रजस तमोगुणे ऐरा सबाइ आच्छन्न ।

वासुदेव कथा रुचि नहे से प्रसन्न ।।३।।

तबे यदि तव कृपा होए अहैतुकी।

सकल-इ-संभव होए तुमि से कौतुकी ।।४।।

कि भावे बुझाले तारा बुझे सेइ रस ।

एत कृपा करो प्रभु करि निजवश ।।५।।

तोमार इच्छाय सब होए माया-वश ।

तोमार इच्छाय नाश मायार परश ।।६।।

तब इच्छा होए यदि तादेर उद्धार ।

बुझिबे निश्चय तबे कथा से तोमार ।।७।।

भागवतेर कथा से तव अवतार ।

धीर हइया सुने यदि काने बार-बार ।।८।।

शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवण कीर्तनः ।।

हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ।।

नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।।

भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ।।

तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्च ये।

चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्व प्रसीदति ।।

एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः ।।

भगवत्तत्वविज्ञानं मुक्तसस्य जायते ।।

भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः ।।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ।

रजस तमो हते हबे पाइबे निस्तार ।

हृदयेर अभद्र सब घुचिबे ताहार ।।१०।।

कि कोरे बुझाबो कथा वर सेइ चाहि ।

क्षुद्र आमि दीन हीन कोनो शक्ति नाहि ।।११।।

अथच एनेछो प्रभु कथा बोलिबारे ।

जे तोमार इच्छा प्रभु कोरो एइ बारे ।।१२।।

अखिल जगत-गुरु! वचन से आमार ।।

अलंकृत कोरिबार क्षमता तोमार ।।१३।।

तव कृपा हले मोर कथा शुद्ध हवे ।।

शुनिया सबार शोक दुःख जे घुचिबे ।।१४।।

आनियाछो यदि प्रभु आमारे नाचाते।

नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते

काष्ठेर पुत्तलि यथा नाचाओ से मते ।।१५।।

भक्ति नाइ वेद नाइ नामे खूब धरो।

भक्तिवेदान्त'' नाम एबे सार्थक करो ।।१६।।

१. हे श्रीकृष्ण! आप इस पतित जीव पर अत्यन्त कृपालु हैं, किन्तु मैं नहीं जानता कि आप मुझे यहाँ क्यों लेकर आये हैं। अब आप साथ जैसा चाहें वैसा व्यवहार करें ।

२. किन्तु मेरा अनुमान है कि आपका यहाँ कुछ कार्य है, अन्यथा आप मुझे ऐसे उग्रस्थान में भला क्यों लाते ? ।

३. यहाँ की अधिकांश जनता रजो और तमोगुण से आच्छादित है। भौतिक जीवन में मग्न होकर वे अपने-आपको बहुत सुखी मान रहे हैं और इसलिए भगवान् वासुदेव की दिव्य कथाओं में उनकी कोई रुचि नहीं है। मैं नहीं जानता कि वे किस प्रकार इसे समझ पायेंगे।

४. किन्तु मैं इतना जानता हूँ कि आपकी अहैतुकी कृपा से सबकुछ सम्भव हो सकता है, क्योंकि आप इस प्रकार के कौतुक करने में निपुण हैं।

५. वे भक्ति के सूक्ष्म भावों को कैसे समझेंगे? हे प्रभु! मैं केवल आपकी कृपा के लिए प्रार्थना करता हूँ जिससे मैं उन्हें आपके संदेश के प्रति आश्वस्त कर सकें। । ६. सब जीव आपकी इच्छा से माया के वशीभूत हैं और इसलिए यदि आप चाहें तो वे इसके चंगुल से मुक्त हो सकते हैं।

७. यदि उनका उद्धार करने की आपकी इच्छा होगी तो निश्चय ही वे आपकी कथा को समझने में समर्थ हो सकेंगे। । ८. श्रीमद्भागवतम् की कथा आपका अवतार है और यदि कोई धीर व्यक्ति नम्रतापूर्वक बार-बार इसे सुनता है तो वह इसे समझ सकता है।

९. ध्यानपूर्वक श्रवण एवं कीर्तन करने पर कृष्णकथा अत्यन्त पवित्रकारी है और जो भक्त उस कृष्णकथा को सुनने की तीव्र इच्छा उत्प्न कर लेता है, सभी के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित एवं गम्भीर भक्तों के शुभेच्छु मित्र परम भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे भक्त के हृदय को समस्त भौतिक इच्छाओं से शुद्ध कर देते हैं। नियमित रूप से भागवत श्रवण करने एवं शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय में स्थित अनर्थ प्रायः नष्ट हो जाते हैं और उत्तम श्लोकों से महिमान्वित परम भगवान् की प्रेममयी सेवा दृढ़ता से हृदय में स्थित जाती है। जैसे ही हृदय में दृढ़ भक्ति स्थित होती है रजोगुण एवं तमोगुण के प्रभाव जैसे काम, लोभ आदि अदृश्य होने लगते हैं। तब वह भक्त सत्त्वगुण में स्थित हो जाता है और पूर्णतः प्रसन्न हो जाता है। इस प्रकार शुद्ध सतोगुण में स्थित होकर वह व्यक्ति जिसका मन भगवान् की भक्ति के सम्पर्क में आने से ज्ञान से प्रकाशित हुआ था, समस्त भौतिक बन्धनों से मुक्त होकर भगवतत्त्व को पूर्णतः समझ जाता है। इस प्रकार हृदय की ग्रन्थि कट जाती है और सभी संशय नष्ट हो जाते हैं। उसकी कर्मबंधन की श्रृंखला कट जाती है और वह आत्मा को स्वामी के रूप में देखने लगता है। (श्रीमद्भागवतम् १.२.१७-२१)

१०. वह व्यक्ति रजो एवं तमोगुण के प्रभाव से निस्तार पा लेगा और उसके हृदय के सभी अभद्र दूर हो जायेंगे।

११. मैं उन्हें कृष्णभावना का संदेश आखिर कैसे समझाऊँगा? मैं अत्यन्त अभागा, अयोग्य एवं अधम हूँ। तभी तो मैं आपकी कृपा चाहता हूँ जिससे मैं उन्हें आश्वस्त कर सकें, क्योंकि स्वयं अपने बलबूते पर ऐसा करना मेरे लिए असम्भव है।

१२. फिर भी, हे प्रभु! आप मुझे यहाँ अपनी कथा का प्रसार करने हेतु लाये हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि आप मुझे अपनी इच्छानुसार सफल बनायें या असफल ।

१३. हे अखिल जगत् के गुरु! मैं तो केवल आपके वचनों को दोहरा सकता हूँ, इसलिए यदि आप चाहें तो मेरे वचनों को उनकी समझ के अनुकूल बना दीजिए।

१४. केवल आपकी अहैतुकी कृपा से ही मेरे वचन शुद्ध होंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब यह दिव्य संदेश उनके हृदयों में जायेगा तो उनका सब शोक और दुःख दूर हो जायेगा।

१५. हे प्रभु! मैं तो केवल आपके हाथों में एक कठपुतली हूँ। इसलिए यदि आप मुझे यहाँ नचाने लाये हैं तो मुझे नचाइये, मुझे नचाइये, हे प्रभु जैसा आप चाहें मुझे नचाइये।

१६. मुझमें न तो भक्ति है और न ही ज्ञान । परन्तु मुझे श्रीकृष्ण के पवित्र नाम में दृढ़ विश्वास है। मुझे ‘‘भक्तिवेदान्त'' की उपाधि दी गई है, इसलिए हे भगवन्! यदि आप चाहें तो मेरा यह नाम सार्थक कर दें।

हस्ताक्षर

सर्वाधिक दुर्भागा तुच्छ भिक्षुक,

ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी

जलदूत जहाज, कॉमनवैल्थ पीयर,

बोस्टन, मैसाचुसेट्स, अमरीका

तिथि १८ सितम्बर १९६५

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