भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन

भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन

@Vaishnavasongs

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भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन

भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन,

अभय चरणारविन्द रे।

दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे,

तरह ए भव सिन्धु रे ।।१।।

शीत आतप, वात बरिषण,

ए दिन यामिनी जागि' रे।

विफले सेबिनु कृपण दुर्जन,

चपल सुख-लव लागि' रे ।।२।।

ए धन, यौवन, पुत्र परिजन,

इथे कि आछे परतीति रे।।

कमलदल-जल, जीवन टलमल,

भजहुँ हरिपद नीति रे ।।३।।

श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वन्दन,

पादसेवन, दास्य रे।

पूजन, सखीजन, आत्मनिवेदन,

गोविन्द दास अभिलाष रे ।।४।।

१. हे मेरे मन, तू केवल नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के अभय प्रदान करने वाले चरणकमलों का भजन कर। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर साधुसंग द्वारा इस भवसागर को पार कर लो।।

२. मैं दिन-रात जागकर सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, वर्षा में पीड़ित होता रहा। क्षणभंगुर सुख के लिए मैंने व्यर्थ ही दुष्ट और कृपण लोगों की सेवा की।

३. क्या भरोसा है कि हमारी सम्पत्ति, यौवन, पुत्र तथा परिजन हमें सच्चा सुख दे पायेंगे? यह जीवन कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की बूंद के समान अस्थिर है। अतः तुझे सदैव भगवान् श्रीहरि की सेवा एवं उनका भजन करना चाहिए।

४. गोविन्द दास की यह चिर अभिलाषा है कि वह नौ विधियों से युक्त भक्ति द्वारा भगवान् की सेवा में संलग्न हो, जो इस प्रकार है - श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वंदन, पादसेवन, दास्य, पूजा-अर्चना तथा आत्मनिवेदन ।।

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