अक्रोध परमानंद

अक्रोध परमानंद

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अक्रोध परमानंद

अक्रोध परमानंद नित्यानंद-राय।

अभिमान-शून्य निताइ नगरे बेड़ाय।।१।।

अधम पतित जीवेर द्वारे-द्वारे गिया।

हरिनाम महामंत्र दिच्छेन बिलाइया।।२।।

जारे देखे तारे कहे दन्ते तृण धरि।

आमारे किनिया लह, बोलो गौरहरि।।३।।

एत बलि, नित्यानंद भूमि गडि, जाय।

सोनार पर्वत येन धूलाते लोटाय।।४।।

हेन अवतारे जार रति ना जन्मिल।।

लोचन बले सेइ पापी एलो आर गेलो।।५।।

१. दयालु श्रीनित्यानन्द राय कभी क्रोधित नहीं होते, क्योंकि वे सदैव परम आनन्द में निमग्न रहते हैं। अभिमान की समस्त भावनाओं से रहित वे नगर में भ्रमण करते रहते हैं।

२. सर्वाधिक अधम और पतित जीवों के द्वार-द्वार पर जाकर वे मुक्त रूप से हरिनाम महामंत्र का उपहार बाँटते हैं।

३. अपने दाँतों के बीच तृण धारण करके वे मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं, श्रीगौरांग महाप्रभु की भक्ति करके मुझे खरीद लो ।”

४. ऐसा कहकर नित्यानन्द प्रभु भूमि पर लोट-पोट होने लगते और ऐसा प्रतीत होता मानो सोने का पर्वत धूलि में लोट रहा हो ।

५. लोचनदास ठाकुर कहते हैं, “जिस किसी की इतने दयालु अवतार में आसक्ति जागृत नहीं हुई है, ऐसा पापी व्यक्ति तो जन्म-मृत्यु के बारम्बार चक्र में आया और चला गया है।

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