चत्वारो वेदाः परिचयः
रोहित द्विवेदी|| चत्वारो वेदाः परिचयः ||
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ऋग्वेद का सामान्य परिचय
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(१) ऋग्वेद की शाखा :👉 महर्षि पतञ्जलि के अनुसार ऋग्वेद की २१ शाखाएँ हैं, किन्तु पाँच ही शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैं :---
(१) शाकल
(२) बाष्कल
(३) आश्वलायन
(४) शांखायन
(५) माण्डूकायन
संप्रति केवल शाकल शाखा ही उपलब्ध है !
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
ऋग्वेद के ब्राह्मण
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(१) ऐतरेय ब्राह्मण
(२) शांखायन ब्राह्मण
ऋग्वेद के आरण्यक
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(१) ऐतरेय आरण्यक
(२) शांखायन आरण्यक
ऋग्वेद के उपनिषद
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(१) ऐतरेय उपनिषद्
(२) कौषीतकि उपनिषद्
ऋग्वेद के देवता
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तिस्र एव देवताः इति नैरुक्ताः !
(१) अग्नि (पृथिवी स्थानीय )
(२) इन्द्र या वायु (अन्तरिक्ष स्थानीय )
(३) सूर्य (द्यु स्थानीय )
ऋग्वेद में बहु प्रयोग छंद
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(१) गायत्री ,
(२) उष्णिक्
(३) अनुष्टुप् ,
(४) त्रिष्टुप्
(५) बृहती,
(६) जगती,
(७) पंक्ति,
ऋग्वेद के मंत्रों के तीन विभाग
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(१) प्रत्यक्षकृत मन्त्र
(२) परोक्षकृत मन्त्र
(३) आध्यात्मिक मन्त्र
ऋग्वेद का विभाजन
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(१) अष्टक क्रम :-
८ अष्टक
६४ अध्याय
२००६ वर्ग
(२) मण्डलक्रम :-
१० मण्डल
८५ अनुवाक
१०२८ सूक्त
१०५८०---१/४
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यजुर्वेद का सामान्य परिचय
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यजुर्वेद यज्ञ कर्म के लिए उपयोगी ग्रन्थ है । गद्यात्मक भाग के "यजुः" कहा जाता है । यजुुस् की प्रधानता के कारण इसे "यजुर्वेद" कहा जाता है ।
यजुष् के अन्य अर्थः
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(१.) यजुर्यजतेः (निरुक्त--७.१२)
(यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को यजुष् कहते हैं ।)
(२.) इज्यते अनेनेति यजुः ।
(जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं ।)
(३.) अनियताक्षरावसानो यजुः ।
(जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे यजुष् हैं ।)
(४.) शेषे यजुःशब्दः । (पूर्वमीमांसा--२.१.३७)
(पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं ।)
(५.) एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः ।
(एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहेंगे ।)
इस वेद की दो परम्पराएँ हैं 👉 कृष्ण और शुक्ल ।
शुक्ल यजुर्वेद में शुद्ध रूप में मन्त्र मात्र संकलित है, किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ ब्राह्मण मिश्रित है ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
शाखाएँ :-
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महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य में यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ बताई है, किन्तु उपलब्धता कम है ।
(१) शुक्ल यजुर्वेद :-
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इसकी कुल १६ शाखाएँ बताईं जाती हैं , किन्तु सम्प्रति २ ही शाखाएँ उपलब्ध हैं।
(१.) माध्यन्दिन (वाजसनेयी ) शाखा,
(२.) काण्व शाखा ।
माध्यन्दिन-शाखा के मुख्य ऋषि याज्ञवल्क्य हैं । ये मिथिला के निवासी थे । इनके पिता वाजसनि थे, अतः याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाए । उनके नाम पर इस यजुर्वेद को वाजसनेयी शाखा भी कहते हैं ।
याज्ञवल्क्य ऋषि ने आदित्य ऋषि से इसे दिन के मध्य भाग में प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन शाखा कहा गया । इस शाखा का सर्वाधिक प्रचार उत्तर भारत में है ।
काण्व ऋषि के पिता बोधायन थे । काण्व के गुरु याज्ञवल्क्य ही थे । काण्व-शाखा का सर्वाधिक प्रचार महाराष्ट्र में हैं ।
(२) कृष्ण यजुर्वेद :-
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इसकी कुल ८५ शाखाएँ बताईं जाती हैं किन्तु सम्प्रति ४ शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---
(१.) तैत्तिरीय-संहिता,
(२.) मैत्रायणी -संहिता,
(३.) कठ-संहिता,
(४.) कपिष्ठल-संहिता,
शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में अन्तर
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(१.) शुक्लयजुर्वेद
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(१.) यह आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मन्त्र है ।
(३.) यह विशुद्ध है, अर्थात् केवल मन्त्र है, कोई मिश्रण नहीं है ।
(४.) इस ग्रन्थ की प्राप्ति आदित्य से हुई है । आदित्य शुक्ल होता है, अतः इसका नाम शुक्ल-यदुर्वेद रखा गया । शुद्धता के कारण भी इसे शुक्ल कहा गया है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है, अर्थात् विशुद्ध है ।
(२.) कृष्णयजुर्वेद
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(१.) यह ब्रह्म-सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें मन्त्रों के साथ-साथ ब्राह्मण भी मिश्रित है, अतः मिश्रण के कारण कृष्ण कहा गया ।
(३.) आदित्य के प्रकाश के विपरीत होने से भी इसे कृष्ण कहा गया ।
(४.) यह अव्यवस्थित है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग है, अर्थात् विशुद्ध नहीं है, अस्वच्छ है, मिश्रित है ।
मन्त्र
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(१.) शुक्लयजुर्वेदः-
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शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी-शाखा में कुल---
४० अध्याय हैं,
१९७५ मन्त्र हैं ।
वाजयनेयी संहिता में कुल अक्षर २,८८,००० (दो लाख, अट्ठासी हजार) हैं ।
काण्व-शाखा में भी ४० ही अध्याय हैं, किन्तु मन्त्र २०८६ हैं ।
अनुवाक-३२८ हैं ।
(२.) कृष्णयजुर्वेद
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तैत्तिरीय-शाखा में कुल ७ काण्ड हैं,
४४ प्रपाठक हैं,
६३१ अनुवाक हैं ।
मैत्रायणी-शाखा में कुल ४ काण्ड हैं,
५४ प्रपाठक हैं,
३१४४ मन्त्र हैं ।
काठक (कठ) संहिता में कुल ५ खण्ड हैं,
स्थानक ४० हैं,
वचन १३ हैं,
५३ उपखण्ड हैं,
८४३ अनुवाक हैं,
३०२८ मन्त्र हैं ।
कपिष्ठल अपूर्ण रूप में उपलब्ध है ।
इसमें ६ अष्टक ही उपलब्ध है ,
४८ अध्याय पर समाप्ति है ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
ब्राह्मण :
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शुक्लयजुर्वेद ------ शतपथ ब्राह्मण
कृष्णयजुर्वेद ---- तैत्तिरीय ब्राह्मण , मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल
इन चारों संहिताओं में जो ब्राह्मण भाग हैं, वही कृष्णयजुर्वेद के ब्राह्मण है ।
आरण्यक :
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शुक्लयजुर्वेद---- बृहदारण्यक
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय आरण्यक
उपनिषद् :
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शुक्लयजुर्वेद ---- ईशोपनिषद् , बृहदारण्यकोपनिषद् , प्रश्नोपनिषद् ।
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय उपनिषद् , महानारायण, मैत्रायणीय, कठोपनिषद्, श्वेताश्वरोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र
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शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, हिरण्यकेशी (सत्याषाढ), भारद्वाज, वैखानस, वाधुल, मानव, मैत्रायणी, वाराह ।
गृह्यसूत्र :
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शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, वैखानस, कठ ।
धर्मसूत्र :
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शुक्लयजुर्वेद---कोई नहीं ।
कृष्णयजुर्वेद----वसिष्ठ-सूत्र ।
शुल्वसूत्र :
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शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन ।
कृष्णयजुर्वेद---बोधायन, आपस्तम्ब, मानव, मैत्रायणी, वाराह और वाधुल ।
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सामवेद : सामान्य परिचय :
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वैदिक वाङ्मय में सामवेद का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गीता (१०.२२) में श्रीकृष्ण ने स्वयं के लिए सामवेद कहा है---"वेदानां सामवेदोSस्मि ।" इस वेद का महत्त्व इस बात से अधिक है कि सामवेद को द्यु कहा गया है, जबकि ऋग्वेद को पृथिवी कहा है---"साम वा असौ द्युलोकः, ऋगयम् भूलोकः ।" (ताण्ड्य-ब्राह्मण--४.३.५)
सामवेद वेदों का सार है । सारे वेदों का रस या सार सामवेद ही है ---"सर्वेषामं वा एष वेदानां रसो यत् साम ।" (शतपथ---१२.८.३.२३) (गोपथ-ब्राह्मण--२.५.७)
सामवेद के लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य है---"गीतिषु सामाख्या ।" (पूर्वमीमांसा--२.१.३६) ऋग्वेद और सामवेद का अभिन्न सम्बन्ध हैं । सामवेद के बिना यज्ञ नहीं होता---"नासामा यज्ञो भवति ।" (शतपथ--१.४.१.१)
जो पुरुष "साम" को जानता है, वही वेद के रहस्य को जान पाता है---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम् ।" (बृहद्देवता)
"साम" का शाब्दिक अर्थ है---देवों को प्रसन्न करने वाला गान ।
सामवेद का प्रकाश आदित्य ऋषि के हृदय में हुआ ।
आचार्य सायण के अनुसार ऋग्वेद के गाए जाने वाले मन्त्रों को "साम" कहते हैं---"ऋच्यध्यूढं साम ।" अर्थात् ऋचाओं पर ही साम आश्रित है । सामवेद उपासना का वेद है ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
(१.) सामवेद के प्रमुख ऋषि---आदित्य,
सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि ।" (शतपथ--१०.५.१.५)
(२.) सामवेद के गायक ऋत्विज्---उद्गाता,
(३.) सामवेद के देवता---आदित्य ।
सामवेद की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । यह सूर्य-पुत्र है । इसमें सूर्य की शक्ति है---"सूर्यात् सामवेदः अजायत ।" (शतपथ---११.५.८.३)
(४.) ऋषि व्यास ने सामवेद का अध्ययन कराया---जैमिनि को ।
जैमिनि ने सामवेद की शिक्षा अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को दी ।
सामवेद का विस्तार इसी सुकर्मा ऋषि ने की थी । सुकर्मा के दो शिष्य थे---हिरण्यनाभ कौशल्य औ पौष्यञ्जि ।
हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था । कृत ने सामवेद के २४ प्रकार के गान स्वरों का प्रवर्तन किया था ।
कृत के बहुत से आनुयायी हुए । इनके अनुयायी सामवेदी आचार्यों को "कार्त" कहा जाता है----
"चतुर्विंशतिधा येन प्रोक्ता वै सामसंहिताः ।
स्मृतास्ते प्राच्यसामानः कार्ता नामेह सामगाः ।" (मत्स्यपुराणः---४९.६७)
(५.) शाखाएँ---
ऋषि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की १००० हजार शाखाएँ थीं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य) ।
सम्प्रति इसकी तीन ही शाखाएँ समुपलब्ध है---
(क) कौथुम,
(ख) राणायणीय,
(ग) जैमिनीय,
कौथुम शाखा के अनुसार सामवेद के दो भाग हैं---(क) पूर्वार्चिक , (२.) उत्तरार्चिक ।
(क) पूर्वार्चिकः----
इसमें कुल चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय, (ख) ऐन्द्र, (ग) पावमान (घ) आरण्य-काण्ड ।
परिशिष्ट के रूप में १० मन्त्र महानाम्नी आर्चिक हैं ।
पूर्वार्चिक में ६ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र ६५० हैं ।
प्रपाठकों में अध्याय है, अध्यायों में खण्ड हैं , जिन्हें "दशति" कहा जाता है, खण्डों में मन्त्र हैं ।
इसके प्रपाठकों के विभिन्न नाम हैं । जिसमें जिस देवता की प्रधानता है, उसका वही नाम है । जैसे---
(क) प्रथम प्रपाठक का नाम--"आग्नेय-पर्व" हैं, क्योंकि इसमें अग्नि से सम्बद्ध मन्त्र हैं । इसके देवता अग्नि ही है । इसमें कुल ११४ मन्त्र हैं ।
(ख) द्वितीय से चतुर्थ प्रपाठक का नाम---"ऐन्द्र-पर्व" है, क्योंकि इनमें इन्द्र की स्तुतियाँ की गईं हैं । इसके देवता इन्द्र ही है । इसमें ३५२ मन्त्र हैं ।
(ग) पञ्चम प्रपाठक का नाम ----"पवमान-पर्व" है, क्योंकि इसमें सोम की स्तुति की गई है । इसके देवता सोम ही है । इसमें कुल ११९ मन्त्र हैं ।
(घ) षष्ठ प्रपाठक का नाम---"अरण्यपर्व" है, क्योंकि इसमें अरण्यगान के ही मन्त्र है । इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम हैं । इसमें कुल ५५ मन्त्र हैं ।
(ङ) महानाम्नी आर्चिक---यह परिशिष्ट हैं । इसके देवता इन्द्र हैं । इसमें कुल १० मन्त्र हैं ।
इस प्रकार कुल मिलाकर पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र हुए ।
इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम से पञ्चम प्रपाठक तक के मन्त्रों का गान गाँवों में हो सकता है । इसलिए इन्हें "ग्रामगान" कहते हैं ।
सामगान के चार प्रकार होते हैं
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(क) ग्रामगेय गान--इसे "प्रकृतिगान" और "वेयगान" भी कहते हैं । यह ग्राम या सार्वजनिक स्थानों पर गाया जाता था ।
(ख) आरण्यगान या आरण्यक गेयगान---यह वनों या पवित्र स्थानों पर गाया जाता था । इसे "रहस्यगान" भी कहते हैं ।
(ग) उहगान---"ऊह" का अर्थ है---विचारपूर्वक विन्यास । यह सोमयाग या विशेष धार्मिक अवसरों पर गाया जाता था ।
(घ) उह्यगान या रहस्यगान---रहस्यात्मक होने के कारण यह सार्वजनिक स्थानों पर नहीं गाया जाता था ।
(ख) उत्तरार्चिक----
इसमें कुल २१ अध्याय और ९ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र १२२५ हैं । इसमें कुल ४०० सूक्त हैं ।
पूर्वार्चिक में ऋचाओं का छन्द देवताओं के अनुसार है, जबकि उत्तरार्चिक में यज्ञों के अनुसार है ।
पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र है, जबकि उत्तार्चिक में १२२५ मन्त्र हैं । दोनों मिलाकर १८७५ हुए ।
पूर्वार्चिक के २६७ मन्त्रों की आवृत्ति उत्तरार्चिक में हुई है । १५०४ मन्त्र ऋग्वेद से आगत है ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
साममवेदस्थ सामगान मन्त्रों के ५ भाग है।
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(क) प्रस्ताव---इसका गान "प्रस्तोता" नामक ऋत्विक् करता है । यह "हूँ ओग्नाइ" से प्रारम्भ होता है ।
(ख) उद्गीथ---इसे साम का प्रधान ऋत्विक् उद्गाता गाता है । यह "ओम्" से प्रारम्भ होता है ।
(ग) प्रतिहार----इसका गान "प्रतिहर्ता" नामक ऋत्विक् करता है । यह दो मन्त्रों को जोडने वाली कडी है । अन्त में "ओम्" बोला जाता है ।
(घ) उपद्रव----इसका गान उद्गाता ही करता है ।
(ङ) निधन----इसका गान तीनों ऋत्विक करते हैं---प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता ।
(६.) सामवेद के कुल मन्त्र----१८७५ हैं ।
ऋग्वेद से आगत मन्त्र हैं--१७७१
सामवेद के अपने मन्त्र हैं--१०४ = १८७५
ऋग्वेद से संकलित १७७१ मन्त्रों में से भी २६७ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
सामवेद के अपने १०४ मन्त्रों में से भी ५ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
इस प्रकार पुनरुक्त मन्त्रों की संख्या २७२ है ।
सारांशतः
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सामवेद में ऋग्वेदीय मन्त्र १५०४ + पुनरुक्त २६७ कुल हुए= १७७१
सामवेद के अपने मन्त्र--९९ + पुनरुक्त ५, इस प्रकार कुल हुए= १०४
दोनों को मिलाकर कुल मन्त्र हुए--- १७७१ + १०४ = १८७५
सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद के ८ वें और ९ वें मण्डल के हैं ।
८ वें मण्डल से ४५० मन्त्र लिए गए हैं,
९ वें मण्डल से ६४५ मन्त्र लिए गए हैं ।
१ वें मण्डल से २३७ मन्त्र लिए गए हैं ।
१० वें मण्डल से ११० मन्त्र लिए गए हैं ।
सामवेद में कुल अक्षर ४००० * ३६ = १,४४,००० (एक लाख, चौवालीस हजार( हैं ।
सामवेद के ४५० मन्त्रों का गान नहीं हो सकता , अर्थात् ये गेय नहीं है ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
कौथुम शाखा में कुल मन्त्र १८७५ हैं, जबकि जैमिनीय शाखा में १६८७ मन्त्र ही है ।
इस प्रकार जैमिनीय-शाखा में १८८ मन्त्र कम है ।
जैमिनीय शाखा में गानों के ३६८१ प्रकार हैं, जबकि कौथुमीय में केवल २७२२ ही हैं , अर्थात् जैमिनीय-शाखा में ९५९ गान-प्रकार अधिक हैं ।
जैमिनीय-शाखा की संहिता, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र सभी उपलब्ध हैं, किन्तु कौथुमीय के नहीं ।
ब्राह्मण
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पञ्चविंश (ताण्ड्य) महाब्राह्मण , षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, वंश, जैमिनीय, तलवकार ।
आरण्यक कोई नहीं ।
उपनिषद्---छान्दोग्य, केनोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र---खादिर, लाट्यायन, द्राह्यायण ।
गृह्यसूत्र----खादिर, गोभिल, गौतम ।
धर्मसूत्र---गौतम ।
शुल्वसूत्र कोई नहीं ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
सामवेद से तीन प्रमुख शिक्षाएँ मिलती हैं
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(क) समत्व की भावना जागृत करना ।
(ख) समन्वय की भावना । पति-पत्नी को एकत्रित करना। समाज को एकत्रित करना । सबको मिलाना । किसी को अलग नहीं करना ।
(ग) साम प्राण है । जीवन में प्राणशक्ति का बडा महत्त्व है । प्राणी इसी से जीता है ।
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अथर्ववेद एक सामान्य परिचय :
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अथर्ववेद का अर्थ--अथर्वों का वेद,
वेदों में अन्यतम अथर्ववेद एक महती विशिष्टता से युक्त है । अथर्ववेद का अर्थ---अथर्वों का वेद (ज्ञान), और अङ्गिरों का ज्ञान अर्थात् अभिचार मन्त्रों से सम्बन्धित ज्ञान ।
(१.) अथर्वन्--- स्थिरता से युक्त योग । निरुक्त (११.१८) के अनुसार "थर्व" धातु से यह शब्द बना है, जिसका अर्थ है---गति या चेष्टा । अतः "अथर्वन्" शब्द का अर्थ है--स्थिरता । इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोSथर्वणवन्तः । थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः ।" निरुक्त (११.१८)
(२.) गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार---समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद वह जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश हो ।
प्राचीन काल में अथर्वन् शब्द पुरोहितों का द्योतक था ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
अन्य नाम
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अथर्वाङ्गिरस्,
अाङ्गिरसवेद,
ब्रह्मवेद,
भृग्वाङ्गिरोवेद,
क्षत्रवेद,
भैषज्य वेद,
छन्दो वेद,
महीवेद
मुख्य ऋषि---अङ्गिरा,
ऋत्विक्---ब्रह्मा
प्रजापति ब्रह्म ने इस वेद का ज्ञान सर्वप्रथम अङ्गिरा ऋषि को दिया ।
शाखाएँ
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ऋषि पतञ्जलि ने महाभाष्य में इस वेद की ९ शाखाएँ बताईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार है।
(१.) पैप्लाद,
(२.) तौद,(स्तौद)
(३.) मौद,
(४.) शौनकीय,
(५.) जाजल,
(६.) जलद,
(७.) ब्रह्मवद,
(८.) देवदर्श,
(९.) चारणवैद्य ।
इनमें से सम्प्रति केवल २ शाखाएँ ही उपलब्ध हैः--शौनकीय और पैप्लाद । शेष मुस्लिम आक्रान्ताओं न नष्ट कर दी । आजकल सम्पूर्ण भारत वर्ष में शौनकीय-शाखा ही प्रचलित है और यही अथर्ववेद है ।
(१.) शौनकीय-शाखा
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काण्ड---२०,
सूक्त---७३०,
मन्त्र---५९८७,
(२.) पैप्लाद -शाखा
यह अपूर्ण है । इसका प्रचलन पतञ्जलि के समय था ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
उपवेद-अर्थर्वेद
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गोपथ-ब्राह्मण (१.१.१०) में इसके पाँच उपवेदों का वर्णन हुआ है---
सर्पवेद,
पिशाचवेद,
असुरवेद,
इतिहासवेद,
पुराणवेद ।
शतपथ-ब्राह्मण (१३.४.३.९) में भी इन उपवेदों का नाम आया है---
सर्पविद्यावेद,
देवजनविद्यावेद, (रक्षोवेद या राक्षसवेद),
मायावेद (असुरवेद या जादुविद्यावेद),
इतिहासवेद ,
पुराणवेद
ऋषि व्यास ने इसका ज्ञान सुमन्तु को दिया
ब्राह्मण👉 गोपथ-ब्राह्मण
आरण्यक👉 कोई नहीं
उपनिषद्👉 मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्
श्रौतसूत्र👉 वैतान
गृह्यसूत्र👉 कौशिक,
धर्मसूत्र👉 कोई नहीं ।
शुल्वसूत्र👉 कोई नहीं ।
अथर्वा ऋषि महान् वैज्ञानिक थे । उन्होंने इस धरा-धाम पर सर्वप्रथम अग्नि का आविष्कार किया था । उन्होंने अरणि-मन्थन से अग्नि का और जल-मन्थन से जलीय-विद्युत् का आविष्कार किया था---
(१.) "अग्निर्जातो अथर्वणा" (ऋग्वेदः---१०.२१.५)
(२.) "अथर्वा त्व प्रथमो निरमन्थदग्ने ।" (यजुर्वेद--११.३२)
(३.) अथर्वा ऋषि ने ही उत्खनन के द्वारा पुरीष्य अग्नि (प्राकृतिक गैस अर्थात् Oil and Natural Gas ) का आविष्कार किया था--"पुरीष्योSसि विश्वभरा अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने ।" (यजुर्वेद---११.३२)
(4.) आज हम जिस अग्नि के द्वारा यज्ञ करते है, उस अग्नि में सर्वप्रथम अथर्वा ने यज्ञ किया था---"यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ।" (ऋग्वेदः---१.८३.५) अथर्वा ऋषि अध्यात्मवाद के प्रथम प्रचारक थे ।
अथर्वा ऋषि का दृष्टिकोण व्यापक था । उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य किया था ।
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
अथर्ववेद के सूक्त
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(१.) पृथिवी-सूक्त , अन्य नाम---भूमि-सूक्त (१२.१) कुल ६३ मन्त्र ।
(२.) ब्रह्मचर्य-सूक्त---(११.५) कुल २६ मन्त्र ।
(३.) काल-सूक्त --दो सूक्त हैं---११.५३ और ११.५४, कुल मन्त्र १५
(४.) विवाह-सूक्त---पूरा १४ वाँ काण्ड । इसमें २ सूक्त और १३९ मन्त्र हैं ।
(५.) व्रात्य-सूक्त--- १५ काण्ड के १ से १८ तक के सूक्तों में २३० मन्त्र है, ये सभी व्रात्य सूक्त हैं ।
(६.) मधुविद्या-सूक्त---९ वें काण्ड के सूक्त १ के २४ मन्त्रों में यह सूक्त है ।
(७.) ब्रह्मविद्या-सूक्त---अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में ब्रह्मविद्या का विस्तृत वर्णन है ।
*महत्वपूर्ण जानकारी*
*दो लिंग :* नर और नारी ।
*दो पक्ष :* शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
*दो पूजा :* वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
*दो अयन :* उत्तरायन और दक्षिणायन।
*xxxxxxxxxx 02 xxxxxxxxxx*
*तीन देव :* ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
*तीन देवियाँ :* महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
*तीन लोक :* पृथ्वी, आकाश, पाताल।
*तीन गुण :* सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
*तीन स्थिति :* ठोस, द्रव, गेस।
*तीन स्तर :* प्रारंभ, मध्य, अंत।
*तीन पड़ाव :* बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
*तीन रचनाएँ :* देव, दानव, मानव।
*तीन अवस्था :* जागृत, मृत, बेहोशी।
*तीन काल :* भूत, भविष्य, वर्तमान।
*तीन नाड़ी :* इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
*तीन संध्या :* प्रात:, मध्याह्न, सायं।
*तीन शक्ति :* इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।
*xxxxxxxxxx 03 xxxxxxxxxx*
*चार धाम :* बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
*चार मुनि :* सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
*चार वर्ण :* ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
*चार निति :* साम, दाम, दंड, भेद।
*चार वेद :* सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
*चार स्त्री :* माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
*चार युग :* सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
*चार समय :* सुबह,दोपहर, शाम, रात।
*चार अप्सरा :* उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
*चार गुरु :* माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
*चार प्राणी :* जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
*चार जीव :* अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
*चार वाणी :* ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
*चार आश्रम :* ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
*चार भोज्य :* खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
*चार पुरुषार्थ :* धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
*चार वाद्य :* तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।
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*पाँच तत्व :* पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
*पाँच देवता :* गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
*पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ :* आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
*पाँच कर्म :* रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
*पाँच उंगलियां :* अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
*पाँच पूजा उपचार :* गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
*पाँच अमृत :* दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
*पाँच प्रेत :* भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
*पाँच स्वाद :* मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
*पाँच वायु :* प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
*पाँच इन्द्रियाँ :* आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
*पाँच वटवृक्ष :* सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
*पाँच पत्ते :* आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
*पाँच कन्या :* अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।
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*छ: ॠतु :* शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
*छ: ज्ञान के अंग :* शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
*छ: कर्म :* देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
*छ: दोष :* काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।
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*सात छंद :* गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
*सात सुर :* षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
*सात चक्र :* सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार।
*सात वार :* रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
*सात मिट्टी :* गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
*सात महाद्वीप :* जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
*सात ॠषि :* वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
*सात ॠषि :* वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
*सात धातु (शारीरिक) :* रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
*सात रंग :* बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
*सात पाताल :* अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
*सात पुरी :* मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
*सात धान्य :* गेहूँ, चना, चांवल, जौ मूँग,उड़द, बाजरा।
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*आठ मातृका :* ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
*आठ लक्ष्मी :* आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
*आठ वसु :* अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
*आठ सिद्धि :* अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
*आठ धातु :* सोना, चांदी, तांबा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
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*नवदुर्गा :* शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
*नवग्रह :* सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
*नवरत्न :* हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
*नवनिधि :* पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।
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*दस महाविद्या :* काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
*दस दिशाएँ :* पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
*दस दिक्पाल :* इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
*दस अवतार (विष्णुजी) :* मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
*दस सती :* सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती। 🕉🙏✡🚩🚩