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हिन्दी साहित्य छंद स्पेशल 

हिंदी साहित्य के अनुसार अक्षर , अक्षरों की संख्या , मात्रा , गणना , यति , गति से संबंधित किसी विषय पर रचना को छंद कहा जाता है।


छंद के अंग :-

1. चरण और पाद

2. वर्ण और मात्रा


1. चरण या पाद :- एक छंद में चार चरण होते हैं। चरण छंद का चौथा हिस्सा होता है। चरण को पाद भी कहा जाता है। हर पाद में वर्णों या मात्राओं की संख्या निश्चित होती है।


चरण के प्रकार :-

1. समचरण

2. विषमचरण


1. समचरण :- दूसरे और चौथे चरण को समचरण कहते हैं।

2. विषमचरण :- पहले और तीसरे चरण को विषमचरण कहा जाता है।


2. वर्ण और मात्रा :- छंद के चरणों को वर्णों की गणना के अनुसार व्यवस्थित किया जाता है। छंद में जो अक्षर प्रयोग होते हैं उन्हें वर्ण कहते हैं।


मात्रा की दृष्टि से वर्ण के प्रकार :-

1. लघु या ह्रस्व

2. गुरु या दीर्घ


1. लघु या ह्रस्व :- जिन्हें बोलने में कम समय लगता है उसे लघु या ह्रस्व वर्ण कहते हैं। इसका चिन्ह (1) होता है।


2. गुरु या दीर्घ :- जिन्हें बोलने में लघु वर्ण से ज्यादा समय लगता है उन्हें गुरु या दीर्घ वर्ण कहते हैं। इसका चिन्ह (:) होता है।


छंद के अंग :-

1. मात्रा

2. यति

3. गति

4. तुक

5. गण


1. छंद में मात्रा का अर्थ :- वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे ही मात्रा कहा जाता है। अथार्त वर्ण को बोलने में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं अथार्त किसी वर्ण के उच्चारण काल की अवधि मात्रा कहलाती है।


2. यति :- पद्य का पाठ करते समय गति को तोडकर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं। सरल शब्दों में छंद का पाठ करते समय जहाँ पर कुछ देर के लिए रुकना पड़ता है उसे यति कहते हैं। इसे विराम और विश्राम भी कहा जाता है।


इनके लिए (,) , (1) , (11) , (?) , (!) चिन्ह निश्चित होते हैं। हर छंद में बीच में रुकने के लिए कुछ स्थान निश्चित होते हैं इसी रुकने को विराम या यति कहा जाता है। यति के ठीक न रहने से छंद में यतिभंग दोष आता है।


3. गति :- पद्य के पथ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं। अथार्त किसी छंद को पढ़ते समय जब एक प्रवाह का अनुभव होता है उसे गति या लय कहा जाता है। हर छंद में विशेष प्रकार की संगीतात्मक लय होती है जिसे गति कहते हैं। इसके ठीक न रहने पर गतिभंग दोष हो जाता है।


4. तुक :- समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को ही तुक कहा जाता है। छंद में पदांत के अक्षरों की समानता तुक कहलाती है।


5. गण :- मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिए तीन वर्णों के समूह को गण मान लिया जाता है। वर्णिक छंदों की गणना गण के क्रमानुसार की जाती है। तीन वर्णों का एक गण होता है। गणों की संख्या आठ होती है।


《 ट्रिक- यमाताराजभानसलगा 》


यगण , तगण , लगण , रगण , जगण , भगण , नगण , सगण आदि। गण को जानने के लिए पहले उस गण के पहले तीन अक्षर को लेकर आगे के दो अक्षरों को मिलाकर वह गण बन जाता है।


छंद के प्रकार :-

1. मात्रिक छंद

2. वर्णिक छंद

3. वर्णिक वृत छंद

4. मुक्त छंद


1. मात्रिक छंद :- मात्रा की गणना के आधार पर की गयी पद की रचना को मात्रिक छंद कहते हैं। अथार्त जिन छंदों की रचना मात्राओं की गणना के आधार पर की जाती है उन्हें मात्रिक छंद कहते हैं। जिनमें मात्राओं की संख्या , लघु -गुरु , यति -गति के आधार पर पद रचना की जाती है उसे मात्रिक छंद कहते हैं।


जैसे :- ” बंदऊं गुर्रू पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।

अमिअ मुरियम चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।”


मात्रिक छंद के भेद :-

1. सममात्रिक छंद

2. अर्धमात्रिक छंद

3. विषममात्रिक छंद


1. सममात्रिक छंद :- जहाँ पर छंद में सभी चरण समान होते हैं उसे सममात्रिक छंद कहते हैं।


जैसे :- “मुझे नहीं ज्ञात कि मैं कहाँ हूँ

प्रभो! यहाँ हूँ अथवा वहाँ हूँ।”


2. अर्धमात्रिक छंद :- जिसमें पहला और तीसरा चरण एक समान होता है तथा दूसरा और चौथा चरण उनसे अलग होते हैं लेकिन आपस में एक जैसे होते हैं उसे अर्धमात्रिक छंद कहते हैं।


3. विषय मात्रिक छंद :- जहाँ चरणों में दो चरण अधिक समान न हों उसे विषम मात्रिक छंद कहते हैं। ऐसे छंद प्रचलन में कम होते हैं।


2. वर्णिक छंद :- जिन छंदों की रचना को वर्णों की गणना और क्रम के आधार पर किया जाता है उन्हें वर्णिक छंद कहते हैं।


प्रमुख मात्रिक छंद :-

1. दोहा छंद

2. सोरठा छंद

3. रोला छंद

4. गीतिका छंद

5. हरिगीतिका छंद

6. उल्लाला छंद

7. चौपाई छंद

8. बरवै (विषम) छंद

9. छप्पय छंद

10. कुंडलियाँ छंद

11. दिगपाल छंद

12. आल्हा या वीर छंद

13. सार छंद

14. तांटक छंद

15. रूपमाला छंद

16. त्रिभंगी छंद



1. दोहा छंद :- यह अर्धसममात्रिक छंद होता है। ये सोरठा छंद के विपरीत होता है। इसमें पहले और तीसरे चरण में 13-13 तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। इसमें चरण के अंत में लघु (1) होना जरूरी होता है।


जैसे :- (i) Sll SS Sl S SS Sl lSl

“कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।

lll Sl llll lS Sll SS Sl

समय पाय तरुवर फरै, केतक सींचो नीर ।।”


2. सोरठा छंद :- यह अर्धसममात्रिक छंद होता है। ये दोहा छंद के विपरीत होता है। इसमें पहले और तीसरे चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। यह दोहा का उल्टा होता है। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना जरूरी होता है।तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होता है।


जैसे :- (i) lS l SS Sl SS ll lSl Sl

“कहै जु पावै कौन , विद्या धन उद्दम बिना।

S SS S Sl lS lSS S lS

ज्यों पंखे की पौन, बिना डुलाए ना मिलें।”


3. रोला छंद :- यह एक मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 11 और 13 के क्रम से 24 मात्राएँ होती हैं। इसे अंत में दो गुरु और दो लघु वर्ण होते हैं।


जैसे :- (i) SSll llSl lll ll ll Sll S

“नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है।

सूर्य चन्द्र युग-मुकुट मेखला रत्नाकर है।

नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडन है।

बंदी जन खग-वृन्द, शेष फन सिंहासन है।”


4. गीतिका छंद :- यह मात्रिक छंद होता है। इसके चार चरण होते हैं। हर चरण में 14 और 12 के करण से 26 मात्राएँ होती हैं। अंत में लघु और गुरु होता है।


जैसे :- S SS SlSS Sl llS SlS

“हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।

लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बने।

ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।”


5. हरिगीतिका छंद :- यह मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके हर चरण में 16 और 12 के क्रम से 28 मात्राएँ होती हैं। इसके अंत में लघु गुरु का प्रयोग अधिक प्रसिद्ध है।


जैसे :- SS ll Sll S S S lll SlS llS

“मेरे इस जीवन की है तू, सरस साधना कविता।

मेरे तरु की तू कुसुमित , प्रिय कल्पना लतिका।

मधुमय मेरे जीवन की प्रिय,है तू कल कामिनी।

मेरे कुंज कुटीर द्वार की, कोमल चरण-गामिनी।”


6. उल्लाला छंद :- यह मात्रिक छंद होता है। इसके हर चरण में 15 और 13 के क्रम से 28 मात्राएँ होती है।


जैसे :- llS llSl lSl S llSS ll Sl S

“करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की।

हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण-मूर्ति सर्वेश की।”


7. चौपाई छंद :- यह एक मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके हर चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। चरण के अंत में गुरु या लघु नहीं होता है लेकिन दो गुरु और दो लघु हो सकते हैं। अंत में गुरु वर्ण होने से छंद में रोचकता आती है।


जैसे :- (i) ll ll Sl lll llSS

“इहि विधि राम सबहिं समुझावा

गुरु पद पदुम हरषि सिर नावा।”


8. विषम छंद :- इसमें पहले और तीसरे चरण में 12 और दूसरे और चौथे चरण में 7 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण और तगण के आने से मिठास बढती है। यति को प्रत्येक चरण के अंत में रखा जाता है।


जैसे :- “चम्पक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाय।

जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हिलाय।।”


9. छप्पय छंद :- इस छंद में 6 चरण होते हैं। पहले चार चरण रोला छंद के होते हैं और अंत के दो चरण उल्लाला छंद के होते हैं। प्रथम चार चरणों में 24 मात्राएँ और बाद के दो चरणों में 26-26 या 28-28 मात्राएँ होती हैं।


जैसे :- “नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।

सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है।

नदिया प्रेम-प्रवाह, फूल -तो मंडन है।

बंदी जन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है।

करते अभिषेक पयोद है, बलिहारी इस वेश की।

हे मातृभूमि! तू सत्य ही,सगुण मूर्ति सर्वेश की।।”


10. कुंडलियाँ छंद :- कुंडलियाँ विषम मात्रिक छंद होता है। इसमें 6 चरण होते हैं। शुरू के 2 चरण दोहा और बाद के 4 चरण उल्लाला छंद के होते हैं। इस तरह हर चरण में 24 मात्राएँ होती हैं।


जैसे :– (i) “घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध।

बाहर का बक हंस है, हंस घरेलू गिद्ध

हंस घरेलू गिद्ध , उसे पूछे ना कोई।

जो बाहर का होई, समादर ब्याता सोई।

चित्तवृति यह दूर, कभी न किसी की होगी।

बाहर ही धक्के खायेगा , घर का जोगी।।”

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