व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं
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श्रीचौराग्रगण्य पुरुषाष्टकम्
व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं,
गोपांगनानां च दुकूलचौरम् ।।
अनेक-जन्मार्जित-पापचौरं,
चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ।।१।।
श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं,
नवांबुद श्यामलकान्ति चौरम् ।
पदाश्रितानां च समस्त चौरं,
चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ।।२।।
अकिंचनीकृत्य पदाश्रितं यः,
करोति भिक्षुँ पथि गेह-हीनम् ।
केनाप्यहो भीषणचौर इद्र्ग,
द्रष्टः श्रुतो वा न जगत्त्रयेऽपि ।।३।।
यदीय नामापि हरत्यशेषं,
गिरि प्रसारानपि पापराशीन् ।
आश्चर्यरूपो ननु चौर इद्र्ग,
द्रष्टः श्रुतो वा न मया कदापि ।।४।।
धनं च मानं च तथेन्द्रियाणि,
प्राणांश्च हृत्वा मम सर्वमेव ।
पलायसे कुत्र धृतोऽद्य चौरं,
त्वं भक्तिदाम्नासि मया निरुद्धः ।।५।।
छिनत्सि घोरं यमपाशबन्धं,
भिनत्सि भीमं भवपाशबन्धम् ।
छिनत्सि सर्वस्य समस्तबन्धं,
नैवात्मनो भक्तकृतं तु बन्धम् ।।६।।
मन्मानसे तामस राशि घोरे,
कारागृहे दुःखमये निबद्धः ।
लभस्व हे चौर ! हरे ! चिराय,
स्वचौर्य दोषोचितमेव दण्डम् ।।७।।
कारागृहे वस सदा हृदये मदीये
मद्भक्तिपाश द्र्ढबन्धन निश्चलः सन्।
त्वां कृष्ण हे ! प्रलय कोटि शतान्तरेऽपि
सर्वस्वचौर ! हृदयान्नहि मोचयामि ।।८।।
अनुवाद
।।१।। व्रज में प्रसिद्ध, माखन चुरानेवाले, एवं गोपियों के चीर चुरानेवाले, अपने आश्रितजनों के अनेक जन्मों के द्वारा उपार्जित पापों को चुरानेवाले-चौराग्रगण्यपुरुष को मैं प्रणाम करता हूँ ।
।।२।। श्रीमती राधिका के हृदयको चुरानेवाले, नूतन-जलधर की श्यामकान्ति चुरानेवाले, एवं निजचरणाश्रितों के समस्त पाप-ताप चुरानेवाले-चौराग्रगण्यपुरुष को मैं प्रणाम करता हूँ ।
।।३।। जो अपने चरणाश्रितों को निष्किञ्चन बनाकर, मार्ग में घूमनेवाले अनिकेत - भिक्षुक बना देता है, हाय! ऐसा भयंकर चोर तो किसी ने तीनों लोकों में भी देखा या सुना नहीं ।
।।४।। जिसका नाममात्र लेना भी, पर्वत के समान विशाल पापसमूह को भी समूल हर लेता है, ऐसे आश्चर्य रूपवाला चोर तो मैंने कभी भी कहीं देखा या सुना नहीं ।
।।५।। हे चोर ! मेरे धन-मान-इन्द्रियाँ-प्राण एवं सर्वस्व को हर कर, कहाँ भागे जा रहे हो ? क्योंकि आज तो तुम भक्तिरूप-रज्जू से धारण कर, मेरे द्वारा रोक लिये गये हो ।
।।६।। क्योंकि तुम, यमराज के भयंकर पाशबन्धन को तो काट देते हो, एवं संसार के भयंकर पाशबन्धन को विदीर्ण कर देते हो, तथा सभीजनों के समस्त बन्धन काट देते हो; किन्तु अपने प्रेमीभक्त के द्वारा रचे गये, अपने प्रेममय बन्धन को, तुम नहीं काट पाते हो ।
।।७।। हे मेरा सर्वस्व चुरानेवाले चोररूप-हरे ! मैंने, आज तुम को अज्ञानरूप-अन्धकार समुदाय से भयंकर, एवं दु:खमय मेरे मनरूपी कारागार में बाँध लिया है; अत: अपनी चोररूप-दोष के उचित दण्ड को ही, बहुत समय तक प्राप्त करते रहो ।
।।८।। हे मेरा सर्वस्व चुरानेवाले कृष्ण ! मेरी भक्तिरूप-पाश के दृढबन्धन में निश्चल होकर, मेरे हृदयरूप-कारागार में सदैव निवास करते रहो; क्योंकि मैं तो अपने हृदयरूप-कारागार से, करोडों कल्पों में भी विमुक्त नहीं करूंगा ।