चेतोदर्पण-मार्जनं - श्रीशिक्षाष्टकम्

चेतोदर्पण-मार्जनं - श्रीशिक्षाष्टकम्

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श्रीशिक्षाष्टकम् (श्रीचैतन्य महाप्रभु विरचित)

चेतोदर्पण-मार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणं

श्रेय:कैरव-चंद्रिका-वितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।

आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं

सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।।१।।

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति:-

तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न कालः ।

एतादृशी तव कृपा भगवन्! ममापि

दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः ॥२।।

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना ।।

अमानिन मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि: ।।३।।

न धनं न जनं न सुंदरीं,

कवितां वा जगदीश! कामये ।

मम जन्मनि जन्मनीश्वरे,

भवताद्-भक्तिरहैतुकी त्वयि ।।४।।

अयि नन्दतनुज! किमरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।

कृपया तव पादपंकज स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय ।।५।।

नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा ।।

पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नामग्रहणे भविष्यति ?।।६।।

युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् ।।

शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्दविरहेण मे ।।७।।

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु माम्,

अदर्शनान्मर्महतां करोतु वा ।।

यथा तथा वा विद्धातु लंपटो

मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ।।८।।

१. श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो हमारे चित्त में वर्षों से संचित मल को साफ करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महाग्नि को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तनयज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन (पति) है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमें नित्य वांछित पूर्णामृत का आस्वादन कराता है।

२. हे भगवन् ! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। 'कृष्ण', 'गोविन्द' जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देशकालादि का कोई भी नियम नहीं है। हे प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवद्प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।

३. स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनःस्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम का सतत कीर्तन कर सकता है।

४. हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि मेरे हृदय में जन्म-जन्मान्तर तक आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।

५. हे नन्दतनुज श्रीकृष्ण! मैं तो आपका नित्य दास हूँ, किन्तु किसी-न-किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्यु रूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्यु सागर से मेरा उद्धार करके मुझे अपने चरणकमलों की धूलि का एक कण बना लीजिए।

६. हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्गद् वाक्यों से रुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा ?

७. हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपने का समय) एक युग के समान प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाहित हो रहे हैं और आपके विरह में मुझे सम्पूर्ण जगत् शून्य ही दीख पड़ता है।

८. एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़ आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें, वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।

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