कुंकुमाक्त-काञ्चनाब्ज

कुंकुमाक्त-काञ्चनाब्ज

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श्रीराधिकाष्टकम्

कुंकुमाक्त-काञ्चनाब्ज-गर्वहारि-गौरभा

पीतनाञ्चिताब्ज-गन्धकीर्ति निन्दि-सौरभा।

बल्लवेश-सूनु-सर्व-वाञ्छितार्थ-साधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ।।१।।

कौरविन्द-कान्ति-निन्दि-चित्र-पट्ट-शाटिका

कृष्ण-मत्तभृङ्ग-केलि-फुल्ल-पुष्प-वाटिका।

कृष्ण-नित्य सङ्गमार्थपद्मबन्धु-राधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ।।२।।

सौकुमार्य-सृष्ट-पल्लवालि-कीर्ति-निग्रहा

चन्द्र-चन्दनोत्पलेन्दु-सेव्य-शीत-विग्रहा।

स्वाभिमर्श-बल्लवीश-काम-ताप-बाधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ।।३।।

विश्ववन्द्य-यौवताभिवन्दितापि या रमा

रूप-नव्य-यौवनादि-सम्पदा न यत्समा।

शील-हार्द-लीलया च सा यतोऽस्ति नाधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ।।४।।

रास-लास्य गीत-नर्म-सत्कलालि-पण्डिता

प्रेम-रम्य-रूप-वेश-सद्गुणालि-मण्डिता।

विश्व-नव्य-गोप-योषिदालितोऽपि याधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ||५||

नित्य-नव्य-रूप केलि-कृष्णभाव-सम्पदा

कृष्णराग-बन्ध-गोप-यौवतेषु-कम्पदा।

कृष्ण-रूप-वेश-केलि-लग्न-सत्समाधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ।।६।।

स्वेद-कम्प-कण्टकाश्रु-गद्गदादि-सञ्चिता

मर्ष-हर्ष-वामतादि-भाव-भूषणाञ्चिता।

कृष्ण-नेत्र-तोषि-रत्न-मण्डनालि-दाधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ।।७।।

या क्षणार्थ-कृष्ण-विप्रयोग-सन्ततोदिता

नेक-दैन्य-चापलादि-भाववृन्द-तोदिता।

यत्नलब्ध-कृष्णसङ्ग-निर्गताखिलाधिका

मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तु राधिका ।।८।।

अष्टकेन यस्त्वनेन नौति कृष्णवल्लभां

दर्शनेऽपि शैलजादि-योषिदालि-दुर्लभाम्।

कृष्णसङ्ग-नन्दितात्म-दास्य-सीधु-भाजनं

तं करोति नन्दितालि-सञ्चयाशु सा जनम् ।।९।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्मों की सेवा प्रदान करती रहें कि, जिनके श्रीविग्रह की कान्ति, कुंकुम से युक्त सुवर्ण-कमल के गर्व का अपहरण करनेवाली है, एवं जिनके श्रीअंग की सुगन्ध, केसर से युक्त कमल की सुगन्ध के यश का तिरस्कार करनेवाली है, तथा जो गोपराजकुमार श्रीकृष्ण के अभिलाषित सभी प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाली हैं । ।।१।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्यों की सेवा प्रदान करते रहें कि, जिनकी चित्र-विचित्र रेशमी साडी मूँगे की शोभा को तिरस्कृत करनेवाली है, एवं जो श्रीकृष्णरूपमत्तभंग की क्रीडा के लिये, विकसित पुष्पवाटिका-स्वरूप हैं, तथा श्रीकृष्ण के नित्यमिलन के लिये, जो सूर्य की आराधना करती रहती हैं। ।।२।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्मों की सेवा प्रदान करती रहें कि, जो अपनी सुकुमारता के द्वारा, नवपल्लवश्रेणी के यश का तिरस्कार करती रहती हैं, एवं जिनका शीतल श्रीविग्रह सेवा करने योग्य है, अर्थात् उन सब से भी अधिक शीतल है, तथा जो अपने स्पर्शमात्र से, गोपीजनवल्लभ श्रीकृष्ण के कन्दर्पजनित ताप को दूर करनेवाली हैं। ।।३।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्मों की सेवा प्रदान करती रहे कि, जो लक्ष्मीदेवी, विश्ववन्दनीययुवतीसमूह के द्वारा अभिवन्दिनत होकर भी, अपने रूप एवं नवयौवन आदि संपत्ति के द्वारा, जिनके समान नहीं है, एवं वही लक्ष्मीदेवी, अपने स्वभाव-प्रेमतथा क्रीडा आदि के द्वारा, जिनके समान नहीं है, एवं वही लक्ष्मीदेवी, अपने स्वभाव-प्रेमतथा क्रीडा आदि के द्वारा भी जिनसे अधिक नहीं है। ।।४।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्यों की सेवा प्रदान करती रहें कि, जो रासलीला में नृत्य-गीत-परिहास आदि सुन्दर कलाश्रेणी में पण्डित हैं, एवं लोकोत्तर-प्रेम, रमणीयरूप, वेषभूषा एवं श्रेष्ठ गुणावली से जो विभूषित हैं, तथा जो समस्त नवीन गोपांगनाश्रेणी से भी अधिक हैं। ।।५।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्यों की सेवा प्रदान करती रहे की, जो अपने नित्यनवीन अपनी क्रीडा, तथा नित्यनवीन अपनी कृष्णभावरूपी-संपत्ति के द्वारा, श्रीकृष्ण के गोप-युवतीश्रेणियाँ में कंप देनेवाली हैं, एवं श्रीकृष्ण के रूप-वेष-क्रीडा आदि के अनुभव में, जिनकी सुन्दर समाधि में लग जाती है। ।।६।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्मों की सेवा प्रदान करती रहें कि, जो स्वेदकंप-पुलक-अश्रु एवं गद्गद आदि सात्त्विक-भावों से संयुक्त हैं; एवं प्रणयकोप, हर्ष, तथा प्रेममयी कुटिलता आदि भावरूपी भूषणों से जो विभूषित हैं; तथा जो श्रीकृष्ण के नेत्रों को सन्तुष्ट करनेवाली रत्नजटित भूषणों की श्रेणी को धारण करनेवाली हैं। ।।७।।

वे श्रीमती राधिका, मेरे लिये अपने पादपद्यों की सेवा प्रदान करती रहें कि, जो श्रीकृष्ण के आधेक्षण के वियोग से, निरन्तर उदयहोनेवाली दीनता-चञ्चलता आदि अनेक भावसमूहों से व्यथित हो जाती हैं, एवं अपने द्वारा अथवा श्रीकृष्ण के द्वारा किये गये, दूषीप्रेषण आदि प्रयत्न के कारण, प्राप्त हुए श्रीकृष्ण के मिलन से, समस्त मानसिकव्यथाओं से रहित हो जाती हैं। ।।८।।

जिनका दर्शन, पार्वती आदि अंगनाश्रेणी के लिये भी दुर्लभ है; कृष्णप्रेयसी उन श्रीमती राधिका की स्तुति, जो व्यक्ति, इस अष्टक के द्वारा करता है, उस व्यक्ति को, अपनी सखीसमुदाय को प्रसन्न करनेवाली श्रीमती राधिका, श्रीकृष्ण के संग से प्रसन्न होकर, शीघ्र ही अपनी सेवारूप-अमृत का पात्र बना लेती हैं। ।।९।।

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