कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ
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कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ
कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ ।
ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे
ध्रुव अति बोलि तोमा ताइ ।।।
श्रीसिद्धान्त सरस्वती, शचीसुत प्रिय अति
कृष्ण सेवाय जार तुल नाइ ।
सेइ से महंत गुरु, जगतेर मधे उरु
कृष्णभक्ति देय ठाइ ठाइ ।।१।।
तार इच्छा बलवान, पाश्चात्येते ठान ठान
होय जाते गौरांगेर नाम ।
पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी
सकलेइ लोए कृष्ण नाम ।।२।।
ताहले आनन्द होए, तबे होए दिग्विजय
चैतन्येर कृपा अतिशय ।
माया दुष्ट जत दुःखी, जगते सबाइ सुखी
वैष्णवेर इच्छा पूर्ण हय ।।३।।
से कार्य ये करिबारे, आज्ञा यदि दिलो मोरे
योग्य नहि अति दीन हीन ।
ताई से तोमार कृपा, मागितेछि अनुरूपा
आजि तुमि सबार प्रवीण ।।४।।
तोमार से शक्ति पेले, गुरु सेवाय वस्तु मिले
जीवन सार्थक यदि होए।
सेइ से सेवा पाइले, ताहले सुखी हले
तब संग भाग्यते मिलोए ।।५।।
एवं जन्म निपतितं प्रभवाहि-कूपे
कामाभिकामं अनु यः प्रपतन प्रसंगात
कृत्वात्मसात् सुरर्षिणा भगवत गृहीतः
सोऽहं कथं नु विसृजे तब भृत्यसेवाम् ।।६।।
तुमि मोर चिर साथी, भूलिया मायार लाठी
खाइयाछी जन्म-जन्मान्तरे।।
आजि पुनः ए सुयोग, यदि होय योगायोग
तबे पारि तुहे मिलिबारे ।।७।।
तोमार मिलने भाइ, आबार से सुख पाइ
गोचारणे घुरि दिन भोर ।।
कत वने छुटाछुटि, वने खाय लुटापुटि
सेइ दिन कबे हबे मोर ।।८।।
आजि से सुविधाने, तोमार स्मरण भेलो
बोड़ो आशा डाकिलाम ताय ।
आमि तोमार नित्यदास, ताई करि एत आस
तुमि बिना अन्य गति नाय ।।९।।
हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण से पुण्यलाभ तभी प्राप्त होगा जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जायेंगी।
१. शचीपुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) के अतिप्रिय श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर द्वारा की गई श्रीकृष्ण की सेवा अतुलनीय है। वे ऐसे महान् सद्गुरु हैं जो सम्पूर्ण विश्व में श्रीकृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति का वितरण करते हैं।
२. उनकी बलवती इच्छा से श्रीगौरांग महाप्रभु का नाम पाश्चात्य जगत् के सब देशों में फैलेगा । पृथ्वी के सब नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहने वाले लोग श्रीकृष्ण के नामों का कीर्तन करेंगे।
३. जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की अतिशय कृपा सभी दिशाओं को जीत लेगी तो पृथ्वी आनन्द से आप्लावित हो जायेगी । जब सब पापी एवं दुष्ट जीव सुखी हो जायेंगे तो इसे देखकर वैष्णवों की इच्छा पूरी हो जायेगी।
४. यद्यपि मेरे गुरु महाराज ने मुझे इस अभियान को पूरा करने की आज्ञा दी है, तथापि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मैं तो अति दीन व हीन हूँ। अतएव, हे नाथ, अब मैं आपकी कृपा की भिक्षा माँगता हूँ जिससे मैं योग्य बन सकें, क्योंकि आप तो प्रत्येक कार्य में प्रवीण हैं।
५. यदि आप शक्ति प्रदान करते हैं तो गुरु की सेवा से परमसत्य की प्राप्ति होती है। और जीवन सार्थक हो जाता है। यदि वह सेवा मिल जाये तो व्यक्ति सुखी हो जाता है और सौभाग्य से उसे आपका संग मिल जाता है।
६. हे भगवन् ! सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए एक-के-बाद-एक भौतिक इच्छाओं के संग के कारण मैं सर्यों के अंधे कुएँ में गिरता जा रहा था। किन्तु आपसे सेवक श्रील नारदमुनि ने मुझेअपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया तथा दिव्य स्तर प्राप्त करने हेतु आवश्यक निर्देश दिये । इसलिए मेरा पहला कर्तव्य उनकी सेवा करना है। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ? (प्रह्लाद महाराज ने नृसिंहदेव से कहा, श्रीमद्भागवतम् ७.९.२८)
७. हे श्रीकृष्ण, तुम मेरे चिर साथी हो । जन्म-जन्मान्तर से तुम्हें भुलाकर मैंने माया की लाठियाँ ही खाई हैं। यदि आज तुमसे मिलने का सुअवसर मुझे पुनः प्राप्त हो जाये तो निश्चित् हमारा पुनर्मिलन होगा।
८. हे भाई, तुमसे मिलकर मुझे फिर से महान् सुख का अनुभव होगा। भोर वेला में मैं गोचारण हेतु निकलूंगा । व्रज के वनों में भागता-खेलता हुआ मैं अलौकिक हर्षोन्माद में भूमि पर लोहूँगा । अहा! वह दिन कब आयेगा?
९. आज मुझे तुम्हारा स्मरण बड़ी भली प्रकार से हुआ। मैंने तुम्हें बड़ी आशा से पुकारा था । मैं तुम्हारा नित्य दास हूँ और इसलिए तुम्हारे संग की इतनी आशा करता हूँ। हे कृष्ण, तुम्हारे बिना मेरी अन्य कोई गति नहीं है।