कृष्ण देव भवन्तम् वन्दे

कृष्ण देव भवन्तम् वन्दे

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कृष्ण देव भवन्तम् वन्दे

कृष्ण देव भवन्तम् वन्दे ।।धृ।।

मन-मानस-मधुकरम् अर्पया निज-पद-पङ्कज-मकरन्दे

यदि अपि समाधिषु विधिरपि पश्यति

न तव नखाग्रमरीचिम् ।

इदं इच्छामि निशम्य तवाच्युत

तदपि कृपाद्भुतवीचिम् ।।१।।

भक्तिरुदञ्चति यद्यपि माधव

न त्वयि मम तिलमात्री ।।

परमेश्वरता तदपि तवाधिक

दुर्घट-घटन-विधात्री ।।२।।

अयं अविलोलतयाद्य सनातन

कलिताद्भुत-रस-भारम् ।

निवसतु नित्यमिहामृत निन्दति

विन्दं मधुरिमा-सारम् ।।३।।

(टेक) हे श्रीकृष्ण ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ। कृपया मेरे मधुमक्खी जैसे मन को अपने चरणकमलों से बहते अमृत पर स्थित कर दीजिए।

१. हे अच्यूत! यद्यपि ब्रह्माजी समाधि में भी आपके चरणकमलों के नखशिरों से प्रस्फुटित प्रकाशकणों को देखने में अक्षम रहते हैं, फिर भी मैं उन्हें देखना चाहता हूँ, क्योंकि मैंने आपकी अद्भुत कृपा की महिमाओं के विषय में सुना है।

२. हे माधव! यद्यपि आपके प्रति मेरे हृदय में रंचमात्र भी भक्ति नहीं है, किन्तु क्योंकि आप परम भगवान् हैं आप असम्भव को भी सम्भव कर सकते हैं।

३. हे सनातन! आपके चरणकमल से प्रवाहित होता अमृत देवताओं को भी मात दे देता है। आपके कमलरूपी चरणों में मधुरता के सार को प्राप्त करके मैं आज प्रार्थना करता हूँ कि मेरा मन सदा-सदा के लिए वहीं निवास करे।

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