केशव! तुया जगत विचित्र

केशव! तुया जगत विचित्र

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केशव! तुया जगत विचित्र

केशव! तुया जगत विचित्र ।

करम-विपाके, भव-वन भ्रमइ,

पेखलें रंग बहु चित्र।।१।।

तुआ पद-विस्मृति, आ-मर जंत्रणा,

क्लेश-दहने दोहि' जाई ।।

कपिल, पतञ्जलि, गौतम, कनभोजी,

जैमिनि, बौद्ध आओवे धाइ' ।।२।।

तब् कोइ निज-मते, भुक्ति, मुक्ति जाचत,

पातई नाना-विध फाँद।

सो-सबुवाञ्चक, तुआ भक्ति बहिर्मुख,

घटाओये विषम प्रमाद।।३।।

बैमुख-वञ्चने, भट सो-सबु,

निर्मिल विविध पसार ।

दंडवत् दूरत, भक्तिविनोद भेल,

भक्त-चरण करि’ सार।।४।।

१. हे केशव! आपका यह जगत् अत्यन्त विचित्र है। अपने स्वार्थी कार्यों के परिणामस्वरूप मैंने इस ब्रह्माण्ड रूपी वन का भ्रमण किया है और अनेक चित्र-विचित्र वस्तुएँ देखी हैं।

२. आपके चरणों की विस्मृति मृत्यु की कटु यातना तक ले जाती है और मेरे हृदय को नाना क्लेशों से जलाती है। इस निसहाय अवस्था में मेरे तथाकथित रक्षक जैसे महान् दार्शनिक कपिल, गौतम, कनाड, जैमिनी और बुद्ध मेरी रक्षा के लिए दौड़े आये हैं।

३.सभी ने निज मत दिये हैं और अपने दार्शनिक फैदे में भोगों और मुक्ति रूपी भोजन लटकाया है। किन्तु ये सब व्यर्थ के धोखेबाज हैं क्योंकि ये आपकी भक्ति से विमुख हैं और इसलिए ये सभी खतरनाक हैं।

४. इनमें से प्रत्येक कर्म, ज्ञान, योग एवं तप में परांगत है और आपसे विमुख आत्माओं को धोखा देते हुए ये विभिन्न प्रलोभनों का निर्माण करते हैं। इन धोखेबाजों को दूर से ही प्रणाम करके भक्तिविनोद आपके चरणकमलों को अपने जीवन के साररूप में स्वीकार करते हैं।

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