हरि हरि कबे मोर

हरि हरि कबे मोर

@Vaishnavasongs

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हरि हरि कबे मोर

हरि हरि कबे मोर ह यबे हेन दिन।

विमल वैष्णवे, रति उपजिबे'

वासना हइबे क्षीण ।।१।।

अन्तर-बहिरे, सम व्यवहार,

अमानि मानद ह ब।

कृष्ण संकीर्तने, श्रीकृष्ण-स्मरणे,

सतत माजिया र ब ।।२।।

ए देहेर क्रिया, अभ्यासे करिब,

जीवन यापन लागि।

श्रीकृष्ण-भजने, अनूकूल याहा,

ताहे ह व अनुरागी ।।३।।

भजनेर याहा, प्रतिकूल ताहा,

हदभावे तेयागिब।

भजिते भजिते, समय आसिले

ए देह छाडिया ढिब ।।४।।

भकतिविनोद, एइ आशा करि,

बसिया गोद्रुम वने ।

प्रभु-कृपा लागि, व्याकुल अन्तरे,

सदा काँढे संगोपने ।।५।।

अनुवाद

हे हरि! कब वह दिन आएगा जब मेरी विशुद्ध वैष्णवों से आसक्ति होगी, अतएव मेरी भौतिक विषयवासना क्षीण हो जाएगी।

मेरी आंतरिक मानसिकता तथा बाह्य आचरण परस्पर विरोधी नहीं रहेंगे। मैं स्वयं | को मान की इच्छा न रखते हुए, अन्यों को सदैव सम्मान देने को तत्पर रहँगा। इस सम्मान भाव से मैं श्रीकृष्ण का स्मरण करता हुआ निरन्तर श्रीकृष्ण संकिर्तन में रत रहूँगा।

में अपने शारीरिक क्रियाकलापों को केवल अपने शरीर तथा आत्मा को एकसाथ । रखने के लिए ही संपादित करूंगा। जो भी कार्य कृष्ण भक्ति के अनुकुल होंगे, उन्हें मैं स्वीकार करूंगा।

में दृढतापूर्वक उन समस्त वस्तुओं को त्याग दूंगा जो भक्ति के प्रतिकूल हैं। इस प्रकार भगवान की आराधना करते हुए उपयुक्त समय आने पर मैं इस भौतिक देह को त्याग दूंगा।

इस प्रकार अभिलाषा करते हुए, भक्तिविनोद ठाकुर गोद्रुम वन में बैठे हुए हैं। वे भगवान की कृपा की आस लगाए हुए व्याकुल हैं, अतएव निर्जन स्थान में वे निरंतर रोते हैं।

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