गौरा पहुँ
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गौरा पहुँ
गोरा पहुँ ना भजिया मैनु ।
प्रेम-रतन-धन हेलाय हाराइनु।।१।।
अधने यतन करि धन तेयागिनु ।
आपन करम-दोषे आपनि डुबिनु।।२।।
सत्संग छाडि' कैनु असते विलास ।
ते-कारणे लागिल जे कर्म-बंध-फाँस।।३।।
विषय-विषम-विष सतत खाइनु ।
गौर-कीर्तन-रसे मगन ना हइनु।।४।।
एमन गौरांगेर गुणे ना कान्दिल मन।।
मनुष्य दुर्लभ जन्म गेल अकारण।।५।।
केनो वा आछये प्राण कि सुख पाइयो ।
नरोत्तम दास केनो ना गेलो मारिया।।६।।
१. हे गौरांग महाप्रभु! मैंने कभी आपका भजन नहीं किया। इस प्रकार मैंने अपनी ही गलती से प्रेमधन रूपी मूल्यवान रत्न लुटा दिया है।
२. यद्यपि मैं स्वयं अत्यन्त निर्धन हैं, फिर भी मैंने आपकी कृपा रूप धन को प्राप्त करने के अवसर को त्यागने में अत्यन्त प्रयास किये और स्वयं को पापकार्यों के समुद्र में डुबो दिया ।
३. सत्संग त्यागकर मैंने भौतिकवादी लोगों के संग में आनन्द लिया । इसलिए अब कर्मफलों की फाँसी मेरे गले में आ गिरी है।
४. मैंने निरन्तर भौतिक इन्द्रियतृप्ति का विष पिया और कभी भी श्रीगौरांग महाप्रभु के कीर्तन रूपी अमृत में स्वयं को निमग्न नहीं किया।
५. ऐसे दयालु गौरांग महाप्रभु के गुणों को सुनकर कभी भी मेरा मन नहीं रोया तथा इस प्रकार मेरा मनुष्य जीवन व्यर्थ ही बीत गया है।
६. मैं क्यों जीवित हूँ? मुझे क्या सुख मिल रहा है? नरोत्तमदास अभी तक मरा क्यों नहीं?