दुष्ट मन

दुष्ट मन

@Vaishnavasongs

AUDIO 1 | AUDIO 2

दुष्ट मन (श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद कृत)

दुष्ट मन तुमि किसेर वैष्णव ?

प्रतिष्ठार तरे, निर्जनेर घरे,

तव ‘हरि नाम केवल ‘कैतव' ।।१।।

जडेर प्रतिष्ठा, शुकरेर विष्ठा

जानो ना कि ताहा ‘मायार वैभव' ।

कनक कामिनी, दिवस-यामिनी,

भाविया कि काज, अनित्य से सब ।।२।।

तोमार कनक, भोगेर जनक,

कनकेर द्वारे सेवहो ‘माधव' ।

कामिनीर काम, नहे तव धाम,

ताहार-मालिक केवल ‘यादव' ।।३।।

प्रतिष्ठाशा-तरु, जड-माया-मरु

ना पेल ‘रावण' युझिया ‘राघव

वैष्णवी प्रतिष्ठा, ताते कर निष्ठा

ताहा ना भजिले लभिबे रौरव ।।४।।

हरीजन-द्वेष, प्रतिष्ठाशा-क्लेष,

कर केन तबे ताहॉर गौरव ।

वैष्णवेर पाछे, प्रतिष्ठाशा आछे,

ता ते कभु नाहे ‘अनित्य-वैभव ।।५।।

से हरि-संबंध, शुन्य-माया-गंध,

ताहा कभु नय ‘जडेर कैतव' ।।

प्रतिष्ठा-चंडाली, निर्जनता-जालि,

उभये जानिह मायिक रौरव ।।६।।

कीर्तन छाडिबो, प्रतिष्ठा माखिबो,

कि काज ढुडिया तादृश गौरव।

माधवेन्द्र पुरी, भाव-घरे चुरि,

ता करिल कभु सदाइ जानबो ।।७।।

तोमार प्रतिष्ठा, ‘शुकरेर विष्ठा',

तार-सह सम कभु ना मानव ।

मत्सरता-वशे, तुमि जड-रसे,

मझेछो छाडिया कीर्तन-सौष्ठव ।।८।।

ताइ दुष्ट मन, ‘निर्जन भजन,

प्रचारिछो छले ‘कुयोगी-वैभव' ।

प्रभु सनातने, परम जतने,

शिक्षा दिल याँहा, चिन्तो सेइ सब ।।९।।

सेइ दुटि कथा', भुलो ना सर्वथा,

उच्चैः-स्वरे कर ‘हरिनाम-र व

‘फल्गु आर ‘युक्त’, ‘बद्ध आर ‘मुक्त,

कभु ना भाविह, एकाकार सब ।।१०।।

‘कनक कामिनी’, ‘प्रतिष्ठा बघिम',

छडियाछे जरे, सेइ तो वैष्णव ।।

सेइ ‘अनासक्त', सेइ ‘शुद्ध भक्त

संसार तथा पाय पराभव ।।११।।

यथा योग्य भोग, नहि तथा तग

‘अनासक्त' सेइ, कि आर कहबो।

‘आसक्ति रहित’, ‘संबंध सहित',

विषय-समुह सकलि ‘माधव' ।।१२।।

सेइ ‘युक्त-वैराग्य, ताँहा तो सौभाग्य,

ताँहा-ए जडेते हरिर वैभव।

कीर्तने जाँहार, ‘प्रतिष्ठा संभार',

ताँहार सम्पत्ति केवल ‘कैतव' ।।१३।।

‘विषय-मुमुक्षु’, ‘भोगेर बुभुक्षु',

दु’ ये त्यजो मन, दुइ ‘अवैष्णव' ।

‘कृष्णेर संबंध', अप्राकृत स्कंध,

कभु नहे ताँहा जडेर संभव ।।१४।।

‘मायावादी जन', कृष्णेतर मन,

मुक्त अभिमाने सेइ निन्दे वैष्णव ।

वैष्णवेर दास, तव भक्ति आस,

केनो वा डाडिएहो निर्जन अहव ।।१५।।

जे ‘फल्गु-वैराग्य’, कहे निजे ‘त्यागी,

से ना पारे कभु होइते ‘वैष्णव' ।

हरि-पद छाडि, ‘निर्जनता बाडि',

लाभिया कि फल, ‘फल्गु सेइ वैभव ।।१६।।

राधा-दास्ये रहि, छाडि ‘भोग–अहि,

‘प्रतिष्ठाशा' नहे ‘कीर्तन-गौरव' ।।

‘राधा-नित्य-जन', ताँहा छाडि मन,

केन वा निर्जन-भजन-कैतव ||१७||

व्रजवासी-गण, प्रचारक-धन,

प्रतिष्ठा-भिक्षुक ता रा नहे ‘शव' ।

प्राण आछे तार, से-हेतु प्रचार,

प्रतिष्ठाशा-हीन- ‘कृष्ण-गाथा' सब ।।१८।।

श्री-दयित-दास, कीर्तनेते आश,

कर उच्छैः स्वरे ‘हरि-नाम-रव

कीर्तन-प्रभावे, स्मरण स्वभावे,

से काले भजन-निर्जन संभव ।।१९।।

।।१।। अरे दुष्ट मन तुम किस तरह के वैष्णव हो? इस सन्दर्भ मे तुम क्या समझाते हो? भगवान के परम पवित्र नाम का जप करने का तुम्हारा जो झूठा दिखावा है वह भी किसी निर्जन क्षेत्र में जाकर, वह सिर्फ इस भौतिक दुनिया के झुठा मान एवं झुठी ख्याति के लिए। - यह और कुछ नही सिर्फ मिथ्याचार है।

।।२।। इस तरह के भौतिक ख्याति का मान उतना ही घृणित होता है जितना की सुअर की विष्ठा होती है। क्या तुम जानते हो की यह माया की शक्ति से रची हुई भ्रममात्र है? इस तरह रात-दिन धन और कामिनी के उपभोग करने विचार को अवलोकन करने का क्या लाभ होता है? सुबकुछ अशाश्वत है।

।।३।। जब तुम अपने नाम से धन एवं सम्पत्ति आदि का दावा करते हो तब इस भौतिक दुनिया का आनन्द लेने के लिए तुम्हारी तीव्र इच्छा का प्रकाश होता है। तुम्हारा जो भी धन है वह माधवसेवा मे अर्पण करना चाहिए। भगवान, जो सभी धन-सम्पत्ति के मालिक है। वैसे कामिनी के काम भोग की इच्छा से तुम्हे निवृत्त होना चाहिए क्यों कि यह तुम्हारे इस भोग के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है क्यों कि इस भोग के भी असली मालिक ‘भगवान यादव है।

।।४।। राक्षसराज रावण (जो कामभोगी था) भगवान श्री रामचन्द्र (जो प्रेमपूर्ण थे) से युद्ध किया था क्यों कि उसे इस दुनिया मे ख्याति और यश का वृक्ष प्राप्त करना था। परन्तु सबकुछ भगवान की अपारशक्ति के बल से, जो इस दुनिया में भगवान की माया शक्ति है सबकुछ निष्फल बना दिया जैसे एक मरुद्यान है। दयापूर्वक ऐसा निश्चित सिद्धान्त लो जिससे एक मजबुत एवं ठोस चबुतरा बने जहाँ एक वैष्णव खडा हो सके। अगर तुम इस स्थिती से भगवान का भजन-पुजन की अवहेलना करते हो तो यह निश्चित रूप से जान लो की आखिरतक तुम्हे नरक ही प्राप्त होगा।

।।५।। क्यो तुम भगवान श्री हरि के भक्तो की निन्दा करते हो? तुम यह क्यों चाहते हो की तुम उनके महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त कर लोगे? इस बर्ताव से तुम सिर्फ अपने मुर्खता को ही प्रकाशित कर रहे हो। जब भगवान श्रीहरि के कोई भक्त बन जाता है तब स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा उसे मिल जाती है एवं शाश्वत यश प्राप्ति के लिए स्वाभाविक रूप से वैष्णवों के चरणकमलों का अनुसरण भी करने लगते है, एवं इससे जो यश मिलता है वह कभी भी भौतिक दुनिया के किसी भी यश ख्याति के साथ तुलना नही किया जा सकता।

।।६।। एक भक्त एवं भगवान के बीच का सम्पर्क सर्वदा भौतिक माया जनित प्रभाव से रहित होता है, इस भौतिक माया की दुनिया के प्रतारक भाव से इस महत्त्वपूर्ण सम्पर्क का कोई लेना देना नहीं होता। इस भौतिक दुनिया के माने जाने वाले यश को भयानक चाण्डालों से तुलना किया जा सकती है जो कुत्ते का मांस खाते है। निर्जनस्थल मे रहकर भजन करनेवाले को माया के मिथ्याजाल में फंसे एकाग्रता भंगकारी स्थिती के साथ तुलना की जा सकती है। यह निश्चित रूप से जान लो, जो भी इस तरह की स्थिति में अवस्थान करता है वह अवश्य ही माया के जाल फँस जाता है जो नरक समान होता है।

।।७।। मै भगवान का नाम जप करना छोड दुंगा, भगवान का कीर्तन नही करुंगा क्यों कि मुझे सिर्फ भौतिक दुनिया का नाम-यश-ख्याति के प्रवाह मे डुबना है। प्रिय मन इस तरह की स्तुति को अपनाने में क्या भलाई है? मै तुम्हे हमेशा याद दिलाता हूँ की महान आत्मा श्रील माधवेन्द्रपुरी ने कभी भी अपने ही भण्डार से अपने को प्रतारणा नही किया जैसे की तुम कर रहे हो।।

।।८।। तुम्हारी यह मामुली धारणा सुअर विष्ठा के तुल्य है। तुम्हारे जैसे मामुली आशा करनेवाले को कभी भी श्रील माधवेन्द्रपुरी जैसे प्रतिष्ठित भक्त के साथ तुलना नहीं किया जाएगा। ईर्षा के प्रभाव में, तुमने संकिर्तन की अत्यन्त उत्तम सिद्धि का त्याग करने के पश्चात् भौतिक सुख के गंदे जल में स्वयं को डूबो लिया है।

।।९।। सच है, अरे दुष्ट मन, निर्जन स्थल मे पुजन करने की ख्याति के बारे मे ढोंगी तपस्वी ही विचार करते है क्यों कि इस तरह वे लोगों को ठगते है, गुमराह करते है। अपने को इस गन्दे गड्ढे में गिराने से बेहतर है की परमपुरुष भगवान श्री श्री चैतन्य महाप्रभु के निर्देशनों को श्रील सनातन गोस्वामी प्रभुने अत्यन्त दयापूर्वक हमे जैसे शिक्षा दिए है उसका यथार्थ रूप से पालन करे।

।।१०।। कभीभी किसीभी क्षण यह मत भूलना की दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं को जो उन्होंने सिखाया है- १) वह यथार्थ वैराग्य है जो फल्गु नदी जैसे ऊपर से शुष्क है क्योकि भौतिक सच को त्यागते है। २) एक बद्ध जीवात्मा, एक मुक्त जीवात्मा के विपरीत है। कभी भी गलती से यह न समझ लेना की यह महत्त्वपूर्ण निर्देश किसी भी अन्य निर्देशों के साथ तुलना के योग्य है। दयापूर्वक यह जरुर याद रखना की जब भी तुम्हे इस तरह के बेकार समय खराब करने की इच्छा होगी फौरन भगवान का परमपवित्र नाम का स्मरण करना, जितने जोर से सम्भव हो उनके परमपवित्र नाम का उच्चारण करना।।

।।११।। वह एक सच्चा वैष्णव है जो भयानक डरावनी बाघिनी का जैसा धन-सम्पत्ति, सौन्दर्य, यश आदि के सामने घुटने टेकने की आदत छोड़ चुके है। इस तरह की आत्मा भौतिक जीवन के आडम्बर से अपने को मुक्त करके एक शुद्ध भक्त माने जाते है। जिसने इस मायालोक के आसक्ति को त्याग दिया है वह इस भौतिक दुनिया के जन्म-मृत्यु के बन्धन पर विजय प्राप्त कर लिया है।

।।१२।। वह निश्चितरूप से अनासक्त है जो भौतिक दुनिया के चीजों को नकारता है, जो दिव्य सेवा के लिए अनावश्यक है। एक भक्त जो इस तरह के जिन्दगी को गुजारता है। कभीभी भौतिक प्रेमोन्मत्तता रोग का शिकार नहीं होता। अतः सभी भौतिक दोषों से रहित होकर एवं भगवत सेवा में लीन होकर, सब कुछ भगवान का अस्तित्व समझाने से सभी इन्द्रिया सीधे तरीके से भगवान श्रीश्री माधव से जुड़ जाते है।

।।१३।। यही युक्त वैराग्य है, जो इसे समझ जाता है वह बडा ही सौभाग्यशाली होता है। ऐसे भक्त के जीवन में भगवान श्रीहरि का व्यक्तिगत आध्यात्मिक गुण मूर्तरूप से प्रकाशित होता है। दूसरी तरफ जो भगवान के परमपवित्र नाम को जप करता है यह सोचकर की इससे उसका भौतिक जगत में बड़ा नाम होगा, परिणाम में उसको सिर्फ मिथ्याचार का पुरस्कार मिलता है, उसके सारे पूजन सामग्री एवं सारा भजन-पूजन निष्फल होता है।

।।१४।। ओ मन, दो तरह के लोगों को परित्याग करना जो इस भौतिक दुनिया से अव्यक्तिगत मुक्ति की इच्छा करता है एवं जो भौतिक दुनिया मे इन्द्रियतृप्ति की इच्छा रखता है। इस तरह के दो प्रकार के व्यक्ति समानरूप से अभक्त होते हैं। भगवान के लिए व्यवहृत वस्तुए निश्चितरूप से दिव्य होते है एवं इसी कारण इन चीजों से कुछ करना नही होता जैसे उन चीजों को अपना समझना पडता एवं किसी मामुली आनन्द के लिए उसे व्यवहार करने की भी जरुरत नहीं होती।

।।१५।। एक निर्वैयक्तिक दार्शनिक कृष्ण को दिव्य भक्ति की वस्तु नही समझता। अतः ऐसा व्यक्ति मिथ्या अहंकार के वश में आकर भगवान के भक्तों की निन्दा नही करता। ओ मन ! तुम सभी वैष्णवों के दास हो अतः हमेशा यह उम्मीद रखना की तुम भक्ति को अपनाओगे। फिर तुम क्यों इस तरह चिल्लाकर अशांति की सृष्टि कर रहे हो? एवं बीच मुझे बुलाकर तुम्हारे निर्जन स्थल मे पूजन करने की विधि को सफल प्रमाणित करने की कोशिश कर रहे हो?

।।१६।। जो झूठा दिखावा करने की कोशिश में सब कुछ भगवान के लिए उत्सर्ग करता है वह मिथ्या अहंकार के कारण अपने को सन्यासी कहता है। परन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा व्यक्ति कभी भी ऐसा गलत मनोभाव के द्वारा एक वैष्णव नही बन सकता। भगवान के चरणकमलों को त्यागकर, उनके दास्यता को छोडकर अगर कोई निर्जनस्थल मे रहकर पूजन करता है तो उसे सिर्फ बेकार के धन मिलेंगे जो फल्गुनदी जैसे सुखा एवं नीरस होगा।

।।१७।। सर्वदा अपने को श्रीमती राधारानी की सेवा में व्यस्त रखना और अपने को भौतिक दुनिया के इन्द्रियतृप्ति रूपी भयानक विषैले साँप जैसे विपद से बचा कर रखना। भगवान का सुमधुर कीर्तन कभी भी किसी के व्यक्तिगत जीवन के मान्यता के लिए नहीं होता है। ओ मन! ये सब जानते हुए भी तुम क्यों अपने परिचय को भुल रहे हो? तुम श्रीमती राधारानी के दास हो और जाकर बेकार निर्जनस्थल में बैठकर पूजन कर रहे हो - जिसे तुम भजन कह रहे हो? ।

।।१८।। भगवान के विख्यात एवं महान प्रवक्ताओं में से सबसे विख्यात वे हैं जो शाश्वत व्यक्तित्व व्रजधाम में निवास करते हैं। वे लोग कभी भी निष्फल भौतिक मान्यता भिक्षा मांगकर अपना समय बर्बाद नहीं करते। यह उन लोग खुशी से गर्व करने समझते जो जीवित होकर भी मृतक के तुल्य है। हर व्रजवासी जीवन में अनुप्रेरित होते है, इसीलिए व्रजवासी इस मुर्ख जगतवासी को जिन्दगी के बारे में अत्यन्त सहज तरीके से शिक्षा देते है, जिससे जीवनदान होता है। जो भी गीत भगवान की स्तुति एवं प्रशंसा करता हैं वो उनके अपना यश-ख्याति के इच्छा से रहित होता है।

।।१९।। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती जो (श्रीमती राधारानी एवं उनके परमप्रिय श्री श्री कृष्ण के दास हैं) हमेशा कीर्तन की इच्छा करते है एवं सबसे यह भिक्षा माँगते है की सभी जोर जोर से भगवान के परमपवित्र नाम का गायन करें। संघटनीय जप में जो दिव्य शक्ति है उससे स्वाभाविक रूप से भगवान का एवं उनके दिव्य लीलाओं का स्मरण कराता है, जैसे जिसकी आध्यात्मिक स्थिति होती है। सिर्फ ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि कोई निर्जन स्थल में जाएंगे एवं भगवान की सेवा तथा भजन-पूजन सम्पूर्ण गोपनीय ढंग से करेंगे।

Report Page