आरे भाई ! भज मोर

आरे भाई ! भज मोर

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आरे भाई ! भज मोर गौरांग चरण

आरे भाई ! भज मोर गौरांग चरण

ना भजिया मैनु दुःखे, डुबि गृह-विष कूपे,

दग्ध कैल ए पाँच पराण ।।१।।

तापत्रय-विषानले, अहर्निशि हियाजले,

देह सदा हय अचेतन।

रिपुवश इंद्रिय हैल, गौरापद पाशरिल,

विमुख हुइल हेन धन ।।२।।

हेन गौर दयामय, छाडि सब लाज-भय,

कायमने लहरे शरण।

परम दुर्मति छिल, तारे गोरा उद्धारिल,

तारा हैल पतितपावन ।।३।।

गोरा द्विज-नटराजे, बान्धह हृदय-माझे,

कि करिबे संसार-शमन।

नरोत्तमदासे कहे, गोरा-सम केह नहे,

ना भजिते देय प्रेमधन ||४||

हे मेरे बन्धुओ! मेरे प्रभु गौरांग देव के श्रीचरणों का भजन करो। यह कितनी दु:ख की बात है कि मैं उनका भजन न करने के कारण गृहरूपी विषकूप में डूब गया हूँ। जिससे मेरे पाँचों प्राण जल गये।

त्रितापरूपी विषाग्नि में दिन-रात मेरा हृदयजल रहा है और मैं सदा अचेत सा रहता हूँ। काम-क्रोधादि षडरिपुओं के वश में मेरी इंद्रियाँ हो गई हैं। श्री गौरांग महाप्रभु के चरणों को भूलने के कारण मैं भगवद्प्रेम रूपी महाधन से वंचित हो गया हूँ।

गौरांग महाप्रभु परम दयालु हैं। उन्होंने परम दुर्मति, नीच व्यक्तियों का भी उद्धार किया है। वे पतितों को पावन करने वाले हैं। इसलिए समस्त लाज शरीर भयत्यागकर एवं मन से उनकी शरण ग्रहण करो।

द्विज नटराज, गौरचन्द्र को अपने हृदयमें बाँध कर रखियो। फिर सासारिक काल आपका क्या करेगा? श्रील नरोत्तमदास ठाकुर कहते हैं कि श्रीगौरांगदेव के समान और कोई दयालु नहीं है, क्योंकि वे भगवत्प्रेमी महाधन भजन न करनेवाले को भी प्रदान करते हैं।

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