■■ आदिकाल का नामकरण
◆हजारी प्रसाद द्विवेदी -आदिकाल
◆रामचंद्र शुक्ल -वीरगाथा काल
◆महावीर प्रसाद दिवेदी -बीजवपन काल
◆रामकुमार वर्मा- संधि काल और चारण काल
◆राहुल संकृत्यायन- सिद्ध-सामन्त काल
◆मिश्रबंधु- आरंभिक काल
◆गणपति चंद्र गुप्त -प्रारंभिक काल/ शुन्य काल
◆विश्वनाथ प्रसाद मिश्र- वीर काल
◆धीरेंद्र वर्मा -अपभ्रंश काल
◆चंद्रधर शर्मा गुलेरी -अपभ्रंश काल
◆ग्रियर्सन- चारण काल
◆पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’- अंधकार काल
◆रामशंकर शुक्ल- जयकाव्य काल
◆रामखिलावन पाण्डेय- संक्रमण काल
◆हरिश्चंद्र वर्मा- संक्रमण काल
◆मोहन अवस्थी- आधार काल
●शम्भुनाथ सिंह- प्राचिन काल
◆वासुदेव सिंह- उद्भव काल
◆रामप्रसाद मिश्र- संक्रांति काल
◆शैलेष जैदी – आविर्भाव काल
◆हरीश- उत्तर अपभ्रंश काल
◆बच्चन सिंह- अपभ्रंश काल: जातिय साहित्य का उदय
◆श्यामसुंदर दास- वीरकाल/अपभ्रंश का
■■ हिन्दी का सर्वप्रथम कवि
विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार हिंदी का पहला कवि
◆राहुल सांकृत्यायन के अनुसार – सरहपा (769 ई.)
◆शिवसिंह सेंगर के अनुसार – पुष्प या पुण्ड (10 वीं शताब्दी)
◆गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार – शालिभद्र सूरि (1184 ई.)
◆रामकुमार वर्मा के अनुसार – स्वयंभू (693 ई.)
◆हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- अब्दुल रहमान (13 वीं शताब्दी)
◆बच्चन सिंह के अनुसार – विद्यापति (15 वीं शताब्दी)
◆चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के अनुसार- राजा मुंज (993 ई.)
◆रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- राजा मुंज व भोज (993 ई.)
नोट:- सर्व सामान्य रूप में राहुल सांकृत्यायन जी द्वारा स्वीकृत सिद्ध कवि ‘ सरहपा या सरहपाद’ को ही हिंदी का सर्वप्रथम कभी माना जाता है|
■■ रास (जैन) साहित्य की प्रमुख रचनाएं
रचना का नाम- रचनाकार का नाम
◆भरतेश्वर बाहुबली रास- शालिभद्र सूरि (1184 ई.)
◆पंच पांडव चरित रास- शालिभद्र सूरि (14 वीं शताब्दी)
◆बुद्धि रास – शालिभद्र सूरि
◆चंदनबाला रास- कवि आसगु (1200 ई. जालौर)
◆जीव दया रास- कवि आसगु
◆स्थुलिभद्र रास- जिन धर्म सूरि (1209 ई.)
◆रेवंतगिरि रास- विजय सेन सूरि (1231 ई.)
◆नेमिनाथ रास- सुमित गुणि (1231 ई.)
◆गौतम स्वामी रास- उदयवंत/विजयभद्र
◆उपदेश रसायन रास- जिन दत्त सूरि
◆कच्छुलि रास- प्रज्ञा तिलक
◆जिन पद्म सूरि रास- सारमूर्ति
◆करकंड चरित रास- कनकामर मुनि
◆आबूरास-पल्हण
◆गय सुकुमाल रास- देल्हण/देवेन्द्र सूरि
◆समरा रास-अम्बदेव सूरि
◆अमरारास- अभय तिलकमणि
◆भरतेश्वर बाहुबलिघोर रास- वज्रसेन सूरि
◆मुंजरास- अज्ञात
◆नेमिनाथ चउपई- विनयचन्द्र सूरि(1200 ई.)
◆नेमिनाथ चरिउ – हरिभद्र सूरि (1159 ई.)
◆नेमिनाथ फागु – राजशेखर सूरि (1348 ई.)
◆कान्हड़-दे-प्रबंध- पद्मनाभ
◆हरिचंद पुराण -जाखू मणियार (1396 ई.)
◆पास चरिउ(पार्श्व पुराण)- पदम कीर्ति
◆सुंदसण चरिउ (सुदर्शन पुराण)- नयनंदी
◆प्रबंध चिंतामणि – जैनाचार्य मेरुतुंग
◆कुमारपाल प्रतिबोध- सोमप्रभ सूरि (1241ई.)
◆श्रावकाचार – देवसेन (933 ई.)
◆दब्ब-सहाव-पयास- देवसेन
◆लघुनयचक्र- देवसेन
◆दर्शनसार- देवसेन
■■ रासो साहित्य की प्रमुख रचनाऍ
◆पृथ्वीराज रासो- चंदबरदाई
◆बीसलदेव रासो -नरपति नाल्ह
◆परमाल रासो -जगनिक
◆हम्मीर रासो – शार्ड.ग्धर
◆खुमान रासो- दलपति विजय
◆विजयपाल रासो -नल्लसिंह भाट
◆बुद्धिरासो- जल्हण
◆मुंज रासो – अज्ञात
रासो नाम की अन्य रचनाएँ-
◆कलियुग रासो- रसिक गोविंद
◆कायम खाँ रासो- न्यामत खाँ जान कवि
◆राम रासो- समय सुंदर
●राणा रासो- दयाराम (दयाल कवि)
●रतनरासो- कुम्भकर्ण
◆कुमारपाल रासो- देवप्रभ
■■ रासो साहित्य की प्रमुख विशेषताएं
यह साहित्य मुख्यतः चारण कवियों द्वारा रचा गया
इन रचनाओं में चारण कवियों द्वारा अपने आश्रयदाता के शौर्य एवं ऐश्वर्य का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन किया गया है
इन रचनाओं में ऐतिहासिकता के साथ-साथ कवियों द्वारा अपनी कल्पना का समावेश भी किया गया है
इन रचनाओं में युद्ध है प्रेम का वर्णन अधिक किया गया है
इन रचनाओं में वीर व श्रंगार रस की प्रधानता है
इन रचनाओं में डिंगल और पिंगल शैली का प्रयोग हुआ है
इनमें विविध प्रकार की भाषाएं एवं अनेक प्रकार के छंदों का प्रयोग किया गया है
इन रचनाओं में चारण कवियों की संकुचित मानसिकता का प्रयोग देखने को मिलता है
रासो साहित्य की अधिकांश रचनाएं संदिग्ध एवं अर्ध प्रमाणिक मानी जाती है|
◆◆ नाथ साहित्य
नाथ पंथ के प्रवर्तक- मत्स्येन्द्रनाथ व गोरखनाथ
भगवान शिव के उपासक नाथों के द्वारा जो साहित्य रचा गया वही नाथ साहित्य कहलाता है|
राहुल संकृत्यायन जी ने नाथ पंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है|
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाथ पंथ या नाथ संप्रदाय को ‘सिद्ध मत, सिद्ध मार्ग, योग मार्ग, योग संप्रदाय, अवधूत मत एवं अवधूत संप्रदाय’ के नाम से पुकारा है|
■■ रचनाकाल
विविध इतिहासकारों ने गोरख नाथ जी का समय निम्नानुसार निर्धारित किया है:-
राहुल संकृत्यायन – 845 ईसवी
हजारी प्रसाद द्विवेदी – नौवीं शताब्दी
डा. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल- 11वीं शताब्दी
रामकुमार वर्मा- 13 वीं शताब्दी
रामचंद्र शुक्ल – 13 वीं शताब्दी
नोट:- नवीनतम खोजों के अनुसार गोरखनाथ जी का सर्वमान्य रचना का तेरहवीं शताब्दी का प्रारंभिक काल ही निर्धारित किया गया है |
■■ नाथो_की_कुल_संख्या – नौ नाथ
आदिनाथ (भगवान शिव)
मत्स्येन्द्रनाथ
गोरखनाथ
चर्पटनाथ
गाहणीनाथ
ज्वालेन्द्रनाथ
चौरंगीनाथ
भर्तृहरिनाथ
गोपीचंदनाथ
नाथ_साहित्य_की_विशेषताएँ
- इस साहित्य में नारी निंदा का सर्वाधिक उल्लेख प्राप्त होता है
- इसमें ज्ञान निष्ठा को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है
- इसमें मनोविकारों की निंदा की गई है
- इसमें सिद्ध साहित्य के भोगविलास की भर्त्सना की गई है
- इस साहित्य में गुरु को विशेष महत्व प्रदान किया गया है
- इस साहित्य में हठयोग का उपदेश प्राप्त होता है
- इसका रूखापन और गृहस्थ के प्रति अनादर का भाव इस साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जाती है
-मन, प्राण, शुक्र, वाक्, और कुण्डलिनी- इन पांचों के संयमन के तरीकों को राजयोग, हठयोग, वज्रयान, जपयोग या कुंडलीयोग कहा जाता है|
हठयोग- गोरखनाथ के ‘सिद्ध-सिद्धान्त-पद्धति’ ग्रंथ के अनुसार ‘हठ’ शब्द में प्रयुक्त ‘ह’ का अर्थ ‘सूर्य’ तथा ‘ठ’ का अर्थ ‘चन्द्रमा’ ग्रहण किया जाता है इन दोनों के योग को ही हठयोग कहते है|
*गोरखनाथ_की_रचनाएँ*:- गुरु गोरखनाथ द्वारा रचित कुल ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है परंतु डॉक्टर पीतांबर दत्त बडथ्वाल ने इनके द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 14 मानी है यथा-
सबदी ( सबसे प्रामाणिक रचना)
पद
प्राण संकली
सिष्यादरसन
नरवैबोध
अभैमात्राजोग
आतम-बोध
पन्द्रह-तिथि
सप्तवार
मछींद्र गोरखबोध
रोमवली
ग्यानतिलक
ग्यानचौंतिसा
पंचमात्रा
विशेष:
⇒ हिंदी साहित्य में डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त करने वाले वाले सर्वप्रथम विद्वान डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने 1942 ईस्वी में ‘गोरखबानी’ नाम से उनकी रचनाओं का संकलन किया है| इसका प्रकाशन हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के द्वारा किया गया था|
⇒ रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह रचनाएं गोरख नाथ जी द्वारा नहीं अपितु उनके अनुयायियों द्वारा रची गई थी|
⇒ गोरखनाथ ने षट्चक्रों वाला योग मार्ग हिंदी साहित्य में चलाया था |
⇒ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नागरी प्रचारिणी सभा काशी के माध्यम से ” नाथ-सिद्धि की बानियाँ ” नामक पुस्तक का संपादन किया था |
सिद्ध (बौद्ध) साहित्य के प्रमुख कवि व उनकी रचनाए
कवि_का_नाम – रचना_का_नाम
सरहपा- (769 ई.)- दोहाकोश
लुइपा (773 ई.लगभग)- लुइपादगीतिका
शबरपा (780 ई.) -१ चर्यापद , २ महामुद्रावज्रगीति , ३ वज्रयोगिनीसाधना
कण्हपा (820 ई. लगभग)- १ चर्याचर्यविनिश्चय. २ कण्हपादगीतिका
डोंभिपा (840 ई. लगभग)- १डोंबिगीतिका, २ योगचर्या, ३ अक्षरद्विकोपदेश
भूसुकपा- बोधिचर्यावतार
आर्यदेवपा – कावेरीगीतिका
कंवणपा – चर्यागीतिका
कंबलपा – असंबंध-सर्ग दृष्टि
गुंडरीपा – चर्यागीति
जयनन्दीपा – तर्क मुदँगर कारिका
जालंधरपा – १ वियुक्त मंजरी गीति, २ हुँकार चित्त , ३ भावना क्रम
दारिकपा – महागुह्य तत्त्वोपदेश
धामपा – सुगत दृष्टिगीतिकाचर्या
विशेष:
- बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य देश भाषा (जनभाषा) में लिखा गया वही सिद्ध साहित्य कहलाता है|
- सिद्ध साहित्य बिहार से लेकर आसाम तक फैला था |
- राहुल संकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिनमें सिद्ध ‘सरहपा’ से यह साहित्य आरंभ होता है |
- बिहार के नालंदा एवं तक्षशिला विद्यापीठ इन के मुख्य अड्डे माने जाते हैं बाद में यह ‘भोट’ देश चले गए |
- इनकी रचनाओं का एक संग्रह महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बांग्ला भाषा में ‘बौद्धगान-ओ- दोहा’ के नाम से निकाला |
-मुनि अद्वयवज्र तथा मुन्नी दत्त सूरी ने सिद्धों की भाषा को ‘संधा अथवा संध्या’ बादशाह के नाम से पुकारा है जिसका अर्थ होता है -कुछ स्पष्ट वह कुछ अस्पष्ट भाषा |
- सिद्धों की भाषा में ‘उलटबासी’ शैली का पूर्व रुप देखने को मिलता है |
- हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सिद्ध साहित्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, ” जो जनता तात्कालिक नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय या पतंग से त्रस्त होकर निराशा के गर्त में गिरी हुई थी, उनके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी बूंटी का कार्य किया |
- साधना अवस्था से निकली सिद्धों की वाणी ‘चरिया गीत/ चर्यागीत’ कहलाती है |
सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएं:-
⇒ इस साहित्य में तंत्र साधना पर अधिक बल दिया गया |
⇒ साधना पद्धति में शिव शक्ति के युगल रूप की उपासना की जाती है |
⇒ इसमें जाति प्रथा एवं वर्णभेद व्यवस्था का विरोध किया गया |
⇒ इस साहित्य में ब्राह्मण धर्म एवं वैदिक धर्म का खंडन किया गया है |
⇒ सिद्धों में पंच मकार की दुष्प्रवृति देखने को मिलती है यथा- मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा, मैथुन |
⇒ सिद्ध साहित्य को मुख्यतः निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:-
1 नीति या आचार संबंधित साहित्य
2 उपदेश परक साहित्य
3 साधना संबंधी या रहस्यवा
दी साहित्य
आदिकालीन स्वतंत्र साहित्य
*लौकिक गद्य साहित्य*
राउलवेल-रोडा_कवि (10वीं शताब्दी)
– यह रचना सर्वप्रथम शिलाओं पर रची गई थी|
-मुंबई की प्रिंस ऑव् वेल्स संग्रहालय से इसका पाठ उपलब्ध करवा कर प्रकाशित करवाया गया था|
– यह हिंदी साहित्य की प्राचीनतम गद्य-पद्य मिश्रित रचना (चंपू काव्य) मानी जाती है|
– इस रचना में ‘राउल’ नामक नायिका के सौंदर्य का नख-शिख वर्णन पहले पद्य में तदुपरांत गद्य में किया गया था|
– हिंदी में नखशिख वर्णन की श्रृंगार परंपरा का आरंभ इसी रचना से माना जाता है|
– इसकी भाषा में हिंदी की सात बोलियों के शब्द प्राप्त होते हैं, जिनमें राजस्थानी प्रधान हैं|
– इसका शिलांकित रूप मुंबई के म्यूजियम में सुरक्षित है|
उक्ति व्यक्ति प्रकरण-पं. दामोदर शर्मा (12वीं शताब्दी)
– पंडित दामोदर शर्मा महाराजा गोविंदचंद्र (1154ई.) के सभा पंडित थे|
– इस रचना में बनारस और उसके आसपास के प्रदेशों की संस्कृति और भाषा पर प्रकाश डाला गया है|
– इस रचना को पढ़ने से यह मालूम चलता है कि उस समय गद्य पद्य दोनों काव्यों में तत्सम शब्दावली का प्रयोग बढ़ने लगा था एवं व्याकरण पर भी ध्यान दिया जाने लगा था|
वर्ण रत्नाकर-ज्योतिरीश्वर ठाकुर
– रचना काल- चौदहवीं शताब्दी (आचार्य द्विवेदी के अनुसार)
– ज्योतिरीश्वर ठाकुर मैथिली भाषा के कवि थे|
– इस रचना का प्रकाशन सुनीत कुमार चटर्जी में पंडित बबुआ मिश्र के द्वारा बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के माध्यम से करवाया गया था|
– इस रचना की भाषा शैली को देखने से यह एक शब्दकोश-सा प्रतीत होती है|
– इसे मैथिली का विश्वकोष भी कहा जाता हैं
लौकिक पद्य साहित्य
अमीर खुसरो
जन्मकाल- 1255 ई. (1312 वि.)
मृत्युकाल – 1324 ई. (1381 वि.)
जन्मस्थान – गांव- पटियाली,जिला-एटा
मूलनाम- अबुल हसन
उपाधि- खुसरो सुखन ( यह उपाधि मात्र 12 वर्ष की अल्प आयु में बुजर्ग विद्वान ख्वाजा इजुद्दीन द्वारा प्रदान की गई थी)
उपनाम- 1.तुर्क-ए-अल्लाह
2. तोता-ए-हिन्द ( हिंदुस्तान की तूती)
गुरु_का_नाम- निजामुद्दीन ओलिया
प्रमुख_रचनाएं:-*
खालिकबारी
पहेलियां
मुकरियाँ
ग़जल
दो सुखने
नुहसिपहर
नजरान-ए-हिन्द
हालात-ए-कन्हैया
विशेष_तथ्य:
इनकी खालिकबारी रचना एक शब्दकोश है यह रचना गयासुद्दीन तुगलक के पुत्र को भाषा ज्ञान देने के उद्देश्य से लिखी गई थी|
इनकी ‘नूहसिपहर’ है रचना में भारतीय बोलियों के संबंध में विस्तार से वर्णन किया गया है|
इनको हिंदू-मुस्लिम समन्वित संस्कृति का प्रथम प्रतिनिधि कवि माना जाता है|
यह खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि माने जाते हैं|
खुसरो की हिंदी रचनाओं का प्रथम संकलन ‘जवाहरे खुसरवी’ नाम से सन 1918 ईस्वी में मौलाना रशीद अहमद सलाम ने अलीगढ़ से प्रकाशित करवाया था|
इसी प्रकार का द्वितीय संकलन 1922 ईसवी में ‘ब्रजरत्नदास’ में नागरी प्रचारिणी सभा काशी के माध्यम से ‘खुसरो की हिंदी कविता’ नाम से करवाया|
रामकुमार वर्मा ने इनको ‘अवधी’ का प्रथम कवि कहा है|
ये अपनी पहेलियों की रचना के कारण सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए हैं|
इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारक शाह तक कई पठान बादशाहों का जमाना देखा था|
यह आदि काल में मनोरंजन पूर्ण साहित्य लिखने वाले प्रमुख कवि माने जाते हैं|
इनका प्रसिद्ध कथन-” मैं हिंदुस्तान की तूती हूं, अगर तुम भारत के बारे में वास्तव में कुछ पूछना चाहते हो तो मुझसे पूछो”
खुसरो_की_पहेलियां:
” एक थाल मोती से भरा | सबके सिर पर औंधा धरा ||
चारों और वह थाली फिरे | मोती उससे एक ना गिरे ||” {आकाश}
” एक नार ने अचरज किया | सांप मारी पिंजडे़ में दिया||
जों जों सांप ताल को खाए | सूखे ताल सांप मर जाए|| { दिया-बत्ती}
” अरथ तो इसका बूझेगा | मुँह देखो तो सुझेगा ||” {दर्पण}
अन्य पहेलियाँ भी पढ़ें
अमीर खुसरो की पहेलियाँ
1)
तरवर से इक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया
बाप का उससे नाम जो पूछा आधा नाम बताया
आधा नाम पिता पर प्यारा बूझ पहेली मोरी
अमीर ख़ुसरो यूँ कहेम अपना नाम नबोली
(उत्तर=निम्बोली)
2)
फ़ारसी बोली आईना,
तुर्की सोच न पाईना
हिन्दी बोलते आरसी,
आए मुँह देखे जो उसे बताए
(उत्तर=दर्पण)
3
बीसों का सर काट लिया
ना मारा ना ख़ून किया
(उत्तर=नाखून)
4
एक परख है सुंदर मूरत, जो देखे वो उसी की सूरत
फिक्र पहेली पायी ना, बोझन लागा आयी ना
(उत्तर=आईना)
5
घूस घुमेला लहँगा पहिने, एक पाँव से रहे खडी।
आठ हाथ हैं उस नारी के, सूरत उसकी लगे परी।
सब कोई उसकी चाह करे, मुसलमान, हिंदू छतरी।
खुसरो ने यही कही पहेली, दिल में अपने सोच जरी।
(उत्तर=छतरी)
6
आदि कटे से सबको पारे। मध्य कटे से सबको मारे।
अन्त कटे से सबको मीठा। खुसरो वाको ऑंखो दीठा॥
(उत्तर=काजल)
7
एक नार ने अचरज किया। साँप मार पिंजरे में दिया
ज्यों-ज्यों साँप ताल को खाए। सूखै ताल साँप मरि जाए
(उत्तर=दिये की बत्ती)
8
खड़ा भी लोटा पड़ा पड़ा भी लोटा।
है बैठा और कहे हैं लोटा।
खुसरो कहे समझ का टोटा॥
(उत्तर=लोटा)
9
खेत में उपजे सब कोई खाय
घर में होवे घर खा जाय
(उत्तर=फूट)
2. बूझ पहेली (अंतर्लापिका)
यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में
पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों:
1.
गोल मटोल और छोटा-मोटा, हर दम वह तो जमीं पर लोटा।
खुसरो कहे नहीं है झूठा, जो न बूझे अकिल का खोटा।।
(उत्तर=लोटा)
2.
श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसे नारी।
दोनों हाथ से खुसरो खींचे और कहे तू आ री।।
(उत्तर=आरी)
3.
हाड़ की देही उज् रंग, लिपटा रहे नारी के संग।
चोरी की ना खून किया वाका सर क्यों काट लिया।
(उत्तर=नाखून)
4.
एक नार तरवर से उतरी, सर पर वाके पांव।
ऐसी नार कुनार को, मैं ना देखन जाँव।।
(उत्तर=मैंना)
5.
सावन भादों बहुत चलत है माघ पूस में थोरी।
अमीर खुसरो यूँ कहें तू बुझ पहेली मोरी।।
(उत्तर=मोरी (नाली)
6.
बाला था जब सबको भाया, बड़ा हुआ कुछ काम न आया।
खुसरो कह दिया उसका नाव, अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।
(उत्तर=दिया)
7.
नारी से तू नर भई और श्याम बरन भई सोय।
गली-गली कूकत फिरे कोइलो-कोइलो लोय।।
(उत्तर=कोयल)
लौकिक पद्य साहित्य – की प्रमुख रचनाएं-
ढोला_मारू_रा_दूहा – यह रचना सर्वप्रथम 1473 ईस्वी में *’कल्लोल कवि’* द्वारा रची गई थी बाद में जैन कवि ‘कुशललाभ’ के द्वारा 1561 में रची गई|
– इसकी भाषा शैली डिंगल हैं
कवि विद्यापति- पदावली* (1380 ई.)
कीर्तिलता (1403 ई.)
कीर्तिपताका (1403 ई.)
- इनकी पदावली रचना मैथिली भाषा तथा कीर्ति लता एवं कीर्तिपताका में अवहट्ठ भाषा का प्रयोग हुआ है |
- मैथिली भाषा में सरस काव्य रचना करने के कारण इनको ‘मैथिली कोकिल’ भी कहा जाता हैं
- इनको अभिनव जयदेव भी कहा जाता है
- इनको नव कवि शेखर भी कहा जाता है
- ये तिरहूत के राजा ‘शिवसिंह’ दरबारी कवि है
- ये शैव मतानुयायी माने जाते है
- कीर्तिलता पुस्तक में तिरहूत के राजा कीर्तिसिंह की वीरता उदारता गुणग्राहकता आदि का वर्णन हैं
-कीर्तिलता रचना में जौनपुर राज्य का रोचक वर्णन है
- कीर्तिपताका पुस्तक में राजा शिवसिंह की वीरता उदारता एवं गुणग्राहिता का वर्णन हैं
- हिंदी में कृष्ण को काव्य का विषय बनाने का श्रेय विद्यापति को ही दिया जाता है
- हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कीर्तिलता रचना को ‘ भृंग-भृंगी संवाद’ कहा है
- रामचंद्र शुक्ल ने विद्यापति को शुद्ध श्रृंगारी कवि माना है
जयचंद_प्रकाश- भट्ट केदार
जयमयंक_जस_चंद्रिका- मधुकर कवि(1186 ईसवी)
वसंत_विलास – अज्ञात
– यह रचना सर्वप्रथम 1952 ईस्वी में ‘हाजी मोहम्मद स्मारक ग्रंथ’ में प्रकाशित हुई थी|
– श्री केशवलाल हर्षादराय ध्रुव इसके प्रथम संपादक थे|
रणमल_छंद- श्रीधर व्यास (1454 ई.)
नोट:- राउलवेल-रोडा़ कवि एक शिलांकित चम्पू काव्य हैं(गद्य पद्य मिश्रित)
आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य
स्वयंभू
रचनाएं-
पउमचरिउ
रिट्ठमेणिचरिउ
स्वयंभूछंद
पंचमि चरिउ
- इनका स्थिति काल आठवीं शताब्दी [783 ई.] निर्धारित किया जाता है|
-‘पउमचरिउ’ रचना में भगवान राम के चरित्र का वर्णन किया गया है एवं इस रचना को डॉ. भयाणी ने ‘अपभ्रंश की रामायण कथा’ एवं स्वयंभू को ‘अपभ्रंश का वाल्मीकि’ कहा जाता है|
-रिट्ठमेणिचरिउ रचना में कृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है|
-’पउमचरिउ’ अपभ्रंश की प्रथम कडवक बद्ध रचना ( 7 चौपाई + 1 दोहा ) है|
-पउमचरिउ में 12000 शलोक हैं| इनमें पांच कांड एवं 90 संधियां हैं इनमें से 83 संधियां स्वयंभू के द्वारा तथा 7 संधियां उनके पुत्र ‘त्रिभुवन’ द्वारा रचित मानी जाती है|
-स्वयंभू के अनुसार पद्धड़िया/पद्धरिया बँध के प्रवर्तक ‘चतुर्मुख’ नामक कवि माने जाते हैं|
पुष्पदंत
रचनाएं-
महापुराण
णयकुमारचरिउ(नाग कुमार चरित)
जसहरचरिउ (यशोधरा चरित)
कोश ग्रंथ
- इनका स्थितिकाल 10 वीं शताब्दी माना जाता है|
- यह प्रारंभ में शैव मतानुयायी थे, किंतु बाद में अपने आश्रयदाता के अनुरोध पर ‘जैन’ पंथ स्वीकार कर लिया|
- इनकी महापुराण रचना में 63 महापुरुषों (शलाका पुरुषों) की जीवन घटनाओं का वर्णन किया गया है|
- शिव सिंह सेंगर ने इनको ‘अपभ्रंश का भवभूति’ कहकर पुकारा है|
- महापुराण रचना के कारण इनको ‘अपभ्रंश का वेदव्यास’ भी कहा जाता है|
– ये स्वयं को ‘अभिमानमेरु’ कहा करते थे|
धनपाल:-
भविसयत्तकहा
- इनका स्थितिकाल 10 वीं शताब्दी माना जाता है|
- पाश्चात्य विद्वान डॉ. विण्टरनित्ज महोदय ने इस रचना को ‘रोमांटिक महाकाव्य’ की संज्ञा प्रदान की है|
अब्दुल_रहमान:- संदेशरासक
- इनका स्थितिकाल 12 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं 13 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध काल निर्धारित किया जाता है|
- ‘संदेश रासक’ एक खंडकाव्य है, जिसमें विक्रमपुर की एक वियोगिनी के विरह की कथा वर्णित है|
-इनको ‘अद्दहमाण’ के नाम से भी जाना जाता है|
- ये किसी भी भारतीय भाषा में रचना करने वाले प्रथम मुस्लिम कवि माने जाते हैं|
- संदेश रासक श्रृंगार काव्य परंपरा की सर्वप्रथम रचना भी मानी जाती है|
जोइन्दु(योगीन्द्र):-
परमात्मप्रकाश
योगसार
- इनका स्थिति काल छठी शताब्दी निर्धारित किया जाता है|
रामसिंह:- पाहुड दोहा
इन का स्थिति काल 11 वीं शताब्दी निर्धारित किया जाता है|
इस रचना में इंद्रिय सुख एवं अन्य संसारिक सुखों की निंदा की गई है तथा त्याग, आत्मज्ञान और आत्मानुभूति को महत्व दिया गया है|
हेमचंद्र:- शब्दानुशासन
- इनका स्थिति काल 12 वीं शताब्दी निर्धारित किया जाता है|
यह गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (विं.सं. 1150-1199) और उनके *भतीजे कुमारपाल* (वि.सं. 1199-1230) के आश्रय में रहे थे|
इनकी की रचना ‘सिद्ध-हेमचंद्र-शब्दानुशासन’ एक बड़ा भारी व्याकरण ग्रंथ है| इसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों भाषाओं का समावेश किया गया है|
अपभ्रंश के उदाहरणों में इन्होंने पूरे दोहे या पद उद्धृत किए हैं| यथा:-
” भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु |
लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु ||”
वररुचि- प्राकृत प्रकाश
उद्योतनसूरी-कुवलयमाल
महचंद_मुनि- दोहा पाहुड़
श्रुतकीर्ति- हरिवंश पुराण
रयधू- पदम पुराण
हेमचंद्र- देशीनाममाला (कोश ग्रंथ)